भारत में आधुनिक विश्वविद्यालय प्रणाली ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान स्थापित हुई। ब्रिटिश विश्वविद्यालयों में चांसलर एक औपचारिक प्रमुख होता था, और कुलपति (वाइस-चांसलर) वास्तविक कार्यकारी प्रमुख होता था। भारत में भी इसी मॉडल को अपनाया गया, जिसमें राज्यपालों को अक्सर विश्वविद्यालयों का चांसलर नियुक्त किया गया। इसका एक कारण यह भी था कि राज्यपाल क्राउन के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते थे और शिक्षा को गैर-राजनीतिक बनाए रखने की अपेक्षा की जाती थी। यह माना जाता था कि राज्यपाल, जो एक संवैधानिक पद पर होते हैं और आमतौर पर सक्रिय राजनीति से दूर रहते हैं, कुलपतियों की नियुक्ति में अधिक निष्पक्ष और गैर-राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाएंगे। इससे योग्य और प्रतिष्ठित शिक्षाविदों की नियुक्ति सुनिश्चित की जा सकेगी और विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता बनी रहेगी।
केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय- कुछ मामलों में, खासकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में, कुलाधिपति की भूमिका केंद्र सरकार और विश्वविद्यालयों के बीच एक समन्वयकारी कड़ी के रूप में भी देखी जाती थी। समय के साथ, इन व्यवस्थाओं में बदलाव आए और कई राज्यों ने महसूस किया कि राज्यपालों द्वारा कुलपतियों की नियुक्ति में राजनीतिक प्रभाव आ सकता है या यह राज्य सरकारों के अधिकारों का अतिक्रमण है। इसी कारण से कई राज्यों ने कानूनों में संशोधन करके या नए कानून बनाकर कुलपति की नियुक्ति का अधिकार राज्य सरकारों को देने की कोशिश की है। केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, हिमाचल में राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच कुछ विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर मतभेद सामने आए हैं।
सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश से तमिलनाडु सरकार को राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार मिल गया है। जबकि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा जारी किए गए कुलपतियों की नियुक्ति के नए दिशा-निर्देशों के मद्देनजर इससे नई बहस शुरू हो गई है। इसके कई संभावित कारण हैं- यूजीसी पूरे देश में उच्च शिक्षा के मानकों को बनाए रखने के लिए दिशा निर्देश जारी करता है, जिसमें कुलपतियों की नियुक्ति भी शामिल है। दूसरी ओर, राज्य सरकारों के पास अपने राज्य के विश्वविद्यालयों पर विधायी और प्रशासनिक अधिकार हैं। तमिलनाडु सरकार का यह कदम यूजीसी के अधिकार को चुनौती देता है और यह सवाल उठाता है कि कुलपतियों की नियुक्ति में किसकी सर्वोच्चता रहेगी।
भारत का संविधान एक संघीय ढांचा प्रदान करता है, जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन है। शिक्षा समवर्ती सूची में आती है, जिसका अर्थ है कि केंद्र और राज्य दोनों इस पर कानून बना सकते हैं। इस मामले में, यह बहस इस बात पर केंद्रित हो सकती है कि कुलपतियों की नियुक्ति शिक्षा के किस पहलू के अंतर्गत आती है और इस पर किसका अधिकार क्षेत्र अधिक है। यूजीसी ने हाल ही में कुलपतियों की नियुक्ति के लिए नए दिशा निर्देश जारी किए हैं, जिनका उद्देश्य चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता, योग्यता और एकरूपता लाना है। कुछ शिक्षाविदों का मानना है कि कुलपतियों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका सीमित होनी चाहिए ताकि विश्वविद्यालयों की स्वतंत्रता और शैक्षणिक अखंडता बनी रहे। वहीं, सरकारें यह तर्क दे सकती हैं कि चूंकि वे विश्वविद्यालयों को वित्त पोषित करती हैं, इसलिए उन्हें नेतृत्व की नियुक्ति में कुछ हद तक अधिकार होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश के अनुसार तमिलनाडु सरकार का कदम यूजीसी के दिशा निर्देशों के साथ टकराव की स्थिति पैदा कर सकता है। केंद्र-राज्य संबंधों, शैक्षणिक स्वायत्तता और कानूनी व्याख्या जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर एक नई बहस शुरू होने की संभावना है। राज्य को विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया है, का असर मुख्यतया उन राज्यों में ज्यादा होने की संभावना है जहां केंद्र से अलग पार्टी की सरकारें हैं। जिन राज्यों में केंद्र और राज्य में अलग-अलग राजनीतिक दल सत्ता में होते हैं, वहां अक्सर नीतियों और अधिकारों को लेकर मतभेद बने रहते हैं। विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति जैसे महत्त्वपूर्ण पदों पर नियंत्रण एक ऐसा क्षेत्र बन जाता है जहां ये राजनीतिक मतभेद खुलकर सामने आते हैं। केंद्र-समर्थित राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच इस मुद्दे पर टकराव की संभावना अधिक होती है। यह देखना होगा कि इस टकराव का समाधान कैसे निकलता है और इसका देश के अन्य राज्यों पर क्या प्रभाव पड़ता है।