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महिला दिवस विशेष : भारत की नारी विभूतियों की अमर गाथा

जसबीर सिंह, पूर्व अध्‍यक्ष, राजस्‍थान अल्‍पसंख्‍यक आयोग

जयपुरMar 07, 2025 / 10:56 pm

Sanjeev Mathur

भारत का इतिहास जहां एक ओर अध्यात्मिक, सामाजिक, धार्मिक कला व संस्कृति में अनूठा कृतित्व करने वाले महापुरूषों से भरपूर है वहीं दूसरी ओर ऐसी नारी विभूतियों से भी गौरवान्वित है जिन्होंने काल के कपाल पर अपने अमिट हस्ताक्षर किये व उनके कृतित्व का गुणगान आज भी किया जाता है तथा उनके प्रति आदर का भाव करोड़ों देशवासियों के मन में सदैव बना रहता है।
मीराबाई : 1498 में जन्मी मीराबाई पवित्र प्रेम व भक्ति का पर्यायवाची शब्द बन गयी। जैसे बुद्ध और महावीर ने मौन से परम तत्व का जाना, जैसे कबीर ने गीत गा-गाकर परमात्मा को जाना व पाया वैसे ही मीरा ने पूरी अभिप्सा व प्यास से पवित्र प्रेम के गीतों व नृत्य से अपने ईश्वर कृष्ण को पाया। मीरा का प्रेम कैलाश मानसरोवर के जल जैसा स्वच्छ व पवित्र था। कथा है कि मीरा चार पांच साल की रही होगी तब एक साधु मीरा के घर मेहमान हुआ, और जब सुबह साधु ने उठकर अपनी कृष्ण की मूर्ति निकालकर उसकी पूजा की तो मीरा वो मूर्ति देखकर सुध-बुध खो बैठी। अनेकोनेक वर्षों के पूर्व जन्म का पूर्वभाव जग गया। वो सांवला चेहरा, वो बड़ी-बड़ी आंखे, मोर मुकुट में बंधे बांसुरी बजाते कृष्ण मीरा के स्मृति पटल पर जीवन्त हो उठे। मीरा के विरह की शुरूआत हुयी चार पांच साल की उम्र में जो उनके जीवन के अन्त तक चली। भक्ति परम्परा की जो श्रृंखला 14वीं-15वीं शताब्दी में प्रारम्‍भ हुई, मीरा उसकी अत्यन्त चमकदार मणि हैं। मीरा ने लगभग 100 भजन लिखे व गाये जिन्होंने मीरा को घर-घर में मान, सम्मान, गुणगान का पात्र बना दिया। जिस काल में आतातीयों के अत्याचारों की वजह से समाज में नारी पर तमाम पाबन्दियां थी मीरा दिवानगी की हद तक जाकर कृष्ण भक्ति में ऐसी डूबी व भीगी कि देश के जनमानस के मन पर सम्मोहक आधिपत्य कर लिया। गांधी जी भी मीरा के भजनों से आनन्दित हो उठते थे। 2 अक्टूबर 1947 को अपने आखिरी जन्मदिन कार्यक्रम में भी दक्षिण भारत की महान् कारनेटिक सिंगर एम एस सुब्बालक्ष्मी ने उन्हें मीरा के भजन गाकर सुनाये थे।
मीरा के अन्त समय की कथा बड़ी प्यारी है जब वह वृंदावन छोड़कर द्वारका चली गयी व रणछोड़दास जी के मन्दिर में रहने लगी। राणा सांगा के सबसे छोटे पुत्र राजा उदयसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे। उनका बड़ा भाव था मीरा के प्रति। उन्होंने अनेक संदेशवाहक भेजे मीरा को वापस लिवा लाने को। जब मीरा नहीं मानी तो उदयसिंह ने एक सौ आदमियों का जत्था भेजा और कहा कि किसी भी तरह मीरा को ले आना और न आये तो उपवास पर बैठ जाना और धरना दे देना। उन लोगों ने धरना दे दिया और जिद की कि चलो। तो मीरा ने कहा अगर ऐसा है तो चलना ही होगा तो मैं जाकर अपने प्यारे को पूछ लूं। वह भीतर मन्दिर में गयी और कहते हैं फिर बाहर नहीं लौटी। कृष्ण की मूर्ति में ही समा गयी। हमारे मनीषियों ने भी कहा है भक्त जब भक्ति की पराकाष्ठा को छूता है तो वो ही भगवान हो जाता है। इस तरह मीरा महा समाधि को उपलब्ध हुयी।
एनी बीसेंट : 1847 में जन्मी थियोसोफिकल सोसायटी को अविरल गति देने वाली अदभुत चरित्र से सम्पन्न एनी बीसेंट ने भारत की सनातन परम्परा व भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में आश्चर्यचकित योगदान दिया। उन्होंने भारत के बहुसंख्यक समाज में आत्मसम्मान व स्वाभिमान भर दिया। एनी बीसेंट 16 नवम्बर 1893 को 46 वर्ष की आयु में भारत आते ही भारत के सांस्कृतिक आन्दोलन में कूद गयी और भारत के साथ-साथ उन्होंने थियोसोफी समाज को भी गौरवान्वित किया।
एनी बीसेंट मानती थी कि पूर्वजन्म में वह हिन्दू थी। आते ही उन्हें भारतवर्ष ऐसा लगा जैसे अनेक जन्मों से वे यहां जन्म लेती आयी हैं। यहां की सनातन परम्परा को वह न केवल सबसे प्राचीन मानती थी बल्कि इसे सबसे श्रेष्ठ भी मानती थी। यहां आते ही उन्होंने गाउन छोड़कर साड़ी पहनी और शुद्ध भारतीय खानपान को अपना लिया। वह भारत के तीर्थों पर गयी एवं अमरनाथ तक की पैदल यात्रा की। बनारस में रहकर उन्होंने सैन्ट्रल हिन्दू कॉलेज स्थापित किया, जिसका वर्तमान रूप आज का बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय है। काशी में ही रहते हुये उन्होंने गीता का अनुवाद, रामायण और महाभारत की संक्षिप्त कथाएं लिखी एवं हिन्दू धर्म एवं संस्कृति पर अनेकोनेक ओजस्वी भाषण दिये। उनके समकालीन अंग्रेजी साहित्य के प्रखर लेखक जार्ज बर्नार्ड शा ने लिखा है कि उस समय के पूरे इंग्लैण्ड में उनके जैसा ओजस्वी भाषण देने वाला कोई नहीं था। जब वे सभा में बोलने को खड़ी होती थी तब ऐसा लगता था मानो स्वयं सरस्वती ही आकाश से उतरकर पृथ्वी पर आ गयी हों। काशी में एक बार उनका उद्बोधन सुनकर एक प्रतिष्ठित पंडित जी ने उन्हें ‘‘सर्व-शुक्ला-सरस्वती’’ की उपाधि दे डाली।
भारत की निन्दा करने वाले विदेशियों और भारत वासियों को जैसा मुंह तोड़ जवाब एनी बीसेंट ने दिया उस समय वैसा कोई और न कर सका। गांधी जी ने भी एनी बीसेंट के बारे में कहा ‘‘जब तक भारवर्ष जीवित है, एनीबीसेंट की सेवाएं भी जीवित रहेंगी जो उन्होंने इस देश के लिए की थी।’’ उन्होंने भारत को अपनी जन्मभूमि माना तथा उनके पास जो भी देने योग्य था, उन्होंने भारत के चरणों पर चढ़ा दिया, इसलिये वे भारतवासियों की दृष्टि में इतनी प्यारी और श्रद्धेय हो गई।
रानी लक्ष्मी बाई : 19 नवम्बर 1835 को काशी में जन्मी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई एक ऐसा नाम है जिनके किस्से भारत में बपचन से लेकर पचपन तक हर वर्ग का व्यक्ति सुनता, गुनता और गुणगान करता आया है। उनके शौर्य, पराक्रम और बलिदान ने भारतवासियों को प्रेरित भी किया, आन्दोलित भी किया और उत्साहित भी। फिर सुभद्रा कुमारी जी जैसी विराट कवियत्री ने उन्हें अजर-अमर कर दिया। उनका लक्ष्मी बाई पर लिखा काव्य ‘‘सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी ….. बुन्देले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।’’ आज भी सभी आयुवर्ग के भारतीयों को रोमांचित कर उठता है। रानी लक्ष्मी बाई भारत के इतिहास का गौरव हैं। आज भी अन्याय व अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष करने वालों के दिलों में रानी लक्ष्मी बाई का संघर्ष, त्याग व बलिदान उत्साह का संचार कर देता है।
एक अति साधारण व्यक्ति मोरोपन्त ताम्बे की यह अबोध सन्तान परिस्थितियों के कारण झांसी के प्रौढ़ राजा गंगाधर राव की महारानी बनी और अपने जीवन के उन्नीसवें वर्ष में ही विधवा हो गयी। राजा गंगाधर राव के निधन के बाद अंग्रेजों की नजर झांसी पर लगी थी और वो अंग्रेजी राज्य में झांसी के विलय के लिये आमादा थे। लेकिन लक्ष्मी बाई अपने जीते जी झांसी को किसी भी हाल में अंग्रेजों के हाथ में न जाने के लिये दृढ़ संकल्पित थी। वह जब पुरुष वेश में घुड़सवारी करती थी अपने सिर पर लोहे का कूला धारण कर ऊपर पगड़ी पहनती थी और दोनों बगलों में पिस्तौल और तलवारें लटकाती थी।
10 मई 1857 को मेरठ में शुरू हुई क्रान्ति की आग जब दहक उठी तो लक्ष्मी बाई भी इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी। इस संग्राम में पेशवा के राव साहब की सेना भी लक्ष्मी बाई के साथ मिल गयी और रानी ने अपने रणकौशल से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। रौद्र रूप में युद्ध करते हुये यह वीरांगना 17 जून 1857 को वीरगति को प्राप्त हुई। वीरता, युद्धकौशल, देशभक्ति और अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति लक्ष्मी बाई की अमर गाथा इस देश के करोड़ों स्त्री-पुरुषों को सदैव प्रेरणा देती रहेगी।
महेषी (क्वीन वारियर) दीद्दा : कश्मीर की यौद्धा महेषी (क्वीन वारियर) दीद्दा भी अपने शौर्य, पराक्रम और चतुरता के लिये जानी जाती हैं। वर्ष 925 में कश्मीर के राजा सिंहराज व रानी श्रीलेखा के घर में जन्मी दीद्दा जन्मते ही पोलियो की बीमारी से ग्रस्त थी। इस वजह से वो लंगड़ा कर चलती थी लेकिन बेहद प्रखर वक्ता व चतुरता से भरपूर थी। दीद्दा कश्मीर के राजा क्षेमगुप्त से विवाह के पश्चात् राजकाज के काम भी सम्भालने लगी। सन् 950 में महाराज की मृत्यु पश्चात् महल के षडयंत्रों को विफल करते हुये कौशल से राजकाज को सम्भाला, अपने साम्राज्य का विस्तार किया और जनता को खुशहाल किया। कश्मीर की इस यौद्धा रानी ने दो बार महमूद गजनी के आक्रमणों को विफल किया। दुश्मनों के छक्के छुड़ा देने वाली इस यौद्धा रानी के किस्से कश्मीर में आज भी प्रचलित हैं।

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