scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड : अन्न है उत्पत्ति और विनाश का कारक | The body is the universe: Food is the cause of creation and destruction | Patrika News
Prime

शरीर ही ब्रह्माण्ड : अन्न है उत्पत्ति और विनाश का कारक

चन्द्रमा ही हमारा पितृ-लोक भी है। जीव की यात्रा का महत्त्वपूर्ण पड़ाव भी है। मृत्यु के बाद देह त्यागकर जीव चन्द्रमा की ओर प्रस्थान करता है। वहीं से स्वर्ग-नरक जाता है। पुन: पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए चन्द्रमा पर ही लौटकर आता है।

जयपुरDec 14, 2024 / 11:07 am

Gulab Kothari

अन्न पोषक तत्त्व को कहते हैं। जो पोषण करता है। शरीर का पोषण अन्न का पार्थिव भाग करता है। मन का पोषण चन्द्रमा एवं अन्य प्राणी का मन करता है।

अन्न पोषक तत्त्व को कहते हैं। जो पोषण करता है। शरीर का पोषण अन्न का पार्थिव भाग करता है। मन का पोषण चन्द्रमा एवं अन्य प्राणी का मन करता है।

गुलाब कोठारी

पंचपर्वात्मक विश्व में चन्द्रमा को ही उत्पत्ति एवं विनाश दोनों का प्रवर्तक माना गया है। चन्द्रमा आध्यात्मिक तथा आधिदेविक भेद से संभूति एवं विनाश का माध्यम है। हमारी प्राथमिक संभूति का कारण आधिदेविक चन्द्रमा अर्थात् परमेष्ठी है तथा उत्तरोत्तर होने वाली जन्मचक्ररूपा संभूति का कारण आध्यात्मिक चन्द्रमा है। ये दोनों ही सोम संबंध से चन्द्रमा कहे जाते हैं। सोम कृष्ण है, बीज है, अव्यय है। बीज ही संतति परम्परा में पुत्रोत्पत्ति का कारक है। यह पितृ ऋण से उऋणता का माध्यम बनता है। अत: सोम रूपी चन्द्रमा ही उत्पत्ति व विनाश दोनों अवस्थाओं का कारक कहलाता है।
अन्न पोषक तत्त्व को कहते हैं। जो पोषण करता है। शरीर का पोषण अन्न का पार्थिव भाग करता है। मन का पोषण चन्द्रमा एवं अन्य प्राणी का मन करता है। बुद्धि का पोषण सूर्य करता है। जीव का पोषण कर्मफलों से होता है। कर्म का मूल भी क्रिया, क्रिया का मूल प्राण, प्राण का मूल बुद्धि, बुद्धि का मूल पुन: मन और कामना। मन-अन्न-कामना एक ही परिवार के तत्त्व हैं। स्वामी चन्द्रमा है।
अन्न के माध्यम से आता हुआ चान्द्र रस मन का प्रवर्तक बनता है। षोडशकलो वै चन्द्रमा: (षड्विंश ब्रा.) के अनुसार चन्द्रमा षोडश कलाओं वाला है। 16 वर्ष की आयु तक 1.1 मन कला का विकास होने पर पुरुष को भी षोडशी कहते हैं। यही चान्द्रसोम का भोग हमारे मन का निर्माता है। चन्द्रमा से उत्पन्न मन में स्नेह तत्त्व प्रधान श्रद्धा रस प्रतिष्ठित रहता है। जिसके कारण हमारा मन विषयों में आसक्त होता हुआ उनके साथ बंध जाता है। वासनात्मक यही बंध-भाव जन्म-मरण के चक्र में लगा रहता है। जब यह मन, प्राण और वाक् के साथ लगता है तो सृष्टि यज्ञ अनवरत चलता रहता है, यही यज्ञ कहलाता है। मन की विज्ञान और आनन्द की ओर गति ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। यही जीव और ब्रह्म के योग की अवस्था है।
जीवन का संचालन प्रकृति करती है। प्रकृति चन्द्रमा का क्षेत्र है, चन्द्रमा से बनती है। चन्द्रमा ही हमारा पितृ-लोक भी है। जीव की यात्रा का महत्त्वपूर्ण पड़ाव भी है। मृत्यु के बाद देह त्यागकर जीव चन्द्रमा की ओर प्रस्थान करता है। वहीं से स्वर्ग-नरक जाता है। पुन: पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए चन्द्रमा पर ही लौटकर आता है। पर्जन्य-अन्न-स्त्री शरीर से होता हुआ पृथ्वी पर* आता है। जीव के पूर्वज जीव भी इसी प्रकार चन्द्रमा पर आते हैं, जीव को अपना-अपना अंशदान करते हैं।
सात पीढ़ियों के अंश का समूह ही जीवात्मा कहलाता है। चन्द्रमा हमारा सोमलोक है। अत्रि-पुत्र है। सूर्य-पत्नी है और 27 नक्षत्रों का पति भी है। औषधियों का पोषक भी है। औषधियां ही जीव का यात्रा मार्ग है। इनके माध्यम से ही जीव पुरुष शरीर में प्रवेश करता है। वहां से स्त्री शरीर में स्थापित किया जाता है। चन्द्रमा ही पुरुष और स्त्री को प्रजनन शक्ति भी देता है। चन्द्रमा एक दिन में एक नक्षत्र का भोग करता है। चन्द्रमा का एक मास 27 दिन का होता है। पुरुष शरीर में 28 दिनों में एक-एक करके 28 अंश पहुंचा देता है, जिसे ‘सहपिण्ड’ कहा जाता है। यही पुरुष शरीर में जीवात्मा का स्वरूप समर्पक बनता है। स्त्री शरीर में भी 28 दिनों में अत्रि-प्राण विसर्जन करके-मासिक धर्म के द्वारा- स्त्री को सन्तान ग्रहण करने के योग्य बनाता है। सोम प्राण ही सृष्टि का बीज है। यद्यपि सभी पार्थिव प्राणियों का जीवात्मा चन्द्रमा से आता है, शरीर भी प्रकृति द्वारा ही निर्मित किया जाता है, फिर भी जो कुछ भेद दिखाई देता है, वह जीवात्मा के कर्मफल के कारण है।
चूंकि हमारा जन्म अविद्या के कारण होता है, अत: हमारी भेद दृष्टि बनी रहती है। शरीर के आगे देखना भी नहीं आता। इसका कारण भी चन्द्रमा ही है। चन्द्रमा से अन्न और मन दोनों बनते हैं। अन्न से मन का निर्माण होने में लगभग 9 सप्ताह का समय लग जाता है। अन्न के प्रति भोक्ता के मन में क्या भाव रहते हैं, यह भी महत्त्वपूर्ण है। ‘अन्न मेरे लिए ईश्वर का प्रसाद है। अन्न से मैं अन्तर्यामी को भोग लगा रहा हूं। अन्न मेरे मन को निर्मल करे। ईश्वर मेरी तरह सबका पेट भरता रहे।‘ यह सात्विक भाव है। सात्विक अन्न से ही मन-प्राण-वाणी तीनों सात्विक बने रहते हैं। यही ‘निस्त्रैगुण्य’ होने अर्थात् तीनों गुणों से बाहर निकलने का मार्ग है।
स्थूल अन्न से पंचभूत शरीर के अंग बनते हैं। उसी में से अन्तरिक्ष और चान्द्र प्राणों से ओज और मन बनते हैं। चूंकि पंच महाभूतों की उत्पत्ति का क्रम आकाश से शुरू होता है, जिसकी तन्मात्रा नाद है। आकाश भूतों की पितृसंस्था है। अत: सभी चारों ही भूतों को प्रभावित करती है। अर्थात्- हमारी वाणी भी अन्न से प्रभावित होती है। वाणी स्वयं भी हमारा अन्न है।
जब दो व्यक्ति बात करते हैं तो क्या अन्तर होता है दोनों में? प्राकृतिक रूप में दोनों समान हैं किन्तु प्रारब्ध का ही तो अन्तर है। वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजय:। (10.37) अर्थात् वृष्णियों में वासुदेव और पाण्डवों में अर्जुन मैं ही हूं। कृष्ण का यह कथन आत्मा रूप में दोनों को एक समान बता रहा है। विभूति का ही तो अन्तर था। यही समाज में बड़ा-छोटा कहलाता है। एक स्वामी है, दूसरा उसका सेवक है। दोनों के भीतर का ईश्वर भी एक ही है। एक ही प्रकृति ने दोनों को बनाया भी है। दोनों अपने-अपने मां-बाप के लिए राजकुमार हैं। अपनी पत्नियों के प्राणनाथ हैं।
स्वामी अहंकारवश अपने सेवक को कुछ भी अपशब्द कह देता है। कौन सुन रहा है- शरीर? कान भी नहीं सुनते। मन सुनकर भीतर भेजता है। जीवात्मा सुनता है। सेवक शरीर नहीं है, उसके भीतर बैठा आत्मा है। आपके कण्टक उसे चुभते हैं। चूंकि आपके भीतर भी वही बैठा है अत: कण्टक लौटकर आपको चुभते है। जैसा दूसरों के लिए करेंगे, वैसा ही लौटकर आपके पास आयेगा। वास्तविकता तो यह है कि मुंह से निकलने से पहले आपका मन उन शब्दों को सुन चुका है। वे शब्द आपके रक्त को प्रभावित कर चुके हैं। बाद में बाहर निकलते हैं। तब सोचें कि समझदार कौन है। सेवक अपनी प्रकृति द्वारा संचालित होकर बोल रहा है या कर रहा है। वही उसकी पात्रता भी है। स्वामी प्रकृति से हटकर, अहंकारवश बोल रहा है और इसका कारण है स्वामी का अन्न जो अधिकांशत: अमर्यादित हो जाता है- अहंकार (ज्ञान और पद का) के कारण, बुद्धिमानी के कारण। फलस्वरूप उसका मन वैसे ही कर्मों से गर्वित होता है।
आज शिक्षित परिवारों में यह दृश्य आम हो गया। अंग्रेजी ने आग में घी डालने का कार्य किया। अंग्रेजी में भारतीय दर्शन नहीं है, श्रेष्ठता का घमण्ड है, स्वच्छंदता का वातावरण है। ऐसे में मानवीय संवदेना का अभाव ही दिखाई पड़ता है। परिवार में पोषण तत्त्व अल्पतम रहता है- मन का। बुद्धि विलास की चर्चा अधिक रहती है।

ऐसे परिवारों में सेवक श्रमिक बनकर रहता है। मानवीय व्यवहार का स्वरूप यहां देख सकते हैं। सरकारी सुविधा प्राप्त-अधिकारी व्यक्ति का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के प्रति व्यवहार देखकर तो चौंक जाएंगे। उनकी अशिक्षित पत्नियों का व्यवहार, उनका अभिमान और भाग्य का चमत्कार देखने योग्य होता है। सेवक भी इतने होते हैं कि स्त्रियों को गृहकार्य करने की आवश्यकता भी नहीं लगती। वे भी पुरुष जैसे ही आक्रामकता का प्रदर्शन करती हैं। अन्न भी दोनों का लगभग समान होता है। यहां प्रकृति अपने पूर्ण स्व-स्वरूप में दिखाई पड़ती है। मायाजाल और भ्रमित कर्मों की शृंखला अनवरत बनी रहती है।

Hindi News / Prime / शरीर ही ब्रह्माण्ड : अन्न है उत्पत्ति और विनाश का कारक

ट्रेंडिंग वीडियो