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नए विचारों के साथ आगे बढ़ने से ही नया साल होगा नया

योगेश मिश्र, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक

जयपुरDec 31, 2024 / 07:02 pm

Hemant Pandey

2025 तो पचास के पड़ाव का आधा रास्ता है। आधा तो बीत चुका है पर बदला कुछ नहीं है। बाकी आधे को बचाना बनाना हम सबकी जिम्मेदारी है क्योंकि जिन्होंने देश को नाउम्मीद किया है उन सरमायेदारों को भी हमीं ने बनाया है।

2025 तो पचास के पड़ाव का आधा रास्ता है। आधा तो बीत चुका है पर बदला कुछ नहीं है। बाकी आधे को बचाना बनाना हम सबकी जिम्मेदारी है क्योंकि जिन्होंने देश को नाउम्मीद किया है उन सरमायेदारों को भी हमीं ने बनाया है।

हम सब की ज़िंदगी में न जाने कितने नये साल आये होंगे। न जाने कितने और आयेंगे। हर साल ज़रूर हम सभी की निजी उपलब्धियों की फ़ेहरिस्त में कुछ न कुछ जोड़ कर गया होगा। वैसे तो बदलाव के लिए साल नहीं केवल क्षण चाहिए होता है। एक क्षण ही उपलब्धियों को लिए पर्याप्त होता है। पर हम क्षण को नहीं, दिन व साल को सेलिब्रेट करते हैं, भूल जाते हैं और अगली उपलब्धियों का जतन करने लगते हैं। सिलसिला अनंत है। जो हासिल हो गया, जिंदगी वहीं रुक नहीं जाती, आगे बढ़ती जाती है।
उपलब्धियां सिर्फ हमारी आपकी या किसी भी एक इंसान की नहीं, बल्कि समाज और देश की भी होती हैं। निजी माइलस्टोन की तरह देश भी एक माइलस्टोन से अगले की तरफ बढ़ते जाना चाहिए। देश शाश्वत है, इंसान तो नश्वर हैं। देश के माइलस्टोन कभी खत्म नहीं होते। सो, हमारे देश के माइलस्टोन क्या हैं? हम नये साल में किन उपलब्धियों की राह तकेंगे? भविष्य की छोड़ें, हमारे पास गिनाने के लिए कौन से माइल स्टोन हैं? सच्चाई ये है कि साल दर साल, देश के लिहाज़ से बदलाव बेहद निराशाजनक हैं। जो भी बदलाव हुए हैं वो सिर्फ चेहरों के हैं। देश की क़िस्मत पर कोई ख़ास असर नहीं हुआ है। कोई मौलिक माइलस्टोन नहीं हैं।
ऐसा क्यों है कि बतौर एक समाज, एक देश आज भी इस गाने की ये लाइन एकदम फिट बैठती हैं, मौसम बदले, न बदले नसीब। साल बीत गए, नए आएंगे वो भी बीत जाएंगे लेकिन हम जातपात के शिकंजे से निकलने की उपलब्धि हासिल न कर पाए। हम आरक्षण की जरूरत से बाहर निकलना तो दूर उसे और बढ़ाने में ही फंसते गए। हम चांद तो छू लिए लेकिन अपनी पुलिस को इंसानी न बना सके। हमने ईडी तो बना दी लेकिन ईडी वालों को घूसखोर बनने से रोक न सके। हम दुनिया की टॉप अर्थव्यवस्थाओं में जगह बनाने की तो बात करने लगे लेकिन 80 करोड़ लोगों की मुफ्त राशन बांटने की मजबूरी से विलग न हो पाए। हम दुनिया में लोकतंत्र के मॉडल तो बन गए लेकिन ईवीएम पर सवाल पर विराम लगाने की उपलब्धि हासिल न कर सके।
साल बीतते गए लेकिन हम हर नागरिक के लिए समान कानूनी व्यवहार, त्वरित न्याय, सम्मानजनक यात्रा, अपने पास ही काम, साफ हवा, साफ पानी, समान इलाज, सुरक्षित सड़क – ऐसी ढेरों उपलब्धियां आज भी हासिल न कर सके। सदियों से हम पढ़ते रटते गाते चले आ रहे हैं घिसी पिटी बातें। क्या सच है और क्या बनावटी यही न जान सके आज तक। इनसे आगे बढ़ना तो दूर की बात है। मायूसियां बहुतेरी हैं। आस भी अनन्त हैं। 2025 से भी उम्मीदें हैं। उपलब्धियों की चाहत हमने छोड़ी नहीं है।
सांसद और विधायक असली जनसेवक बनें और सिर्फ एक ही कार्यकाल की पेंशन लें। नेताओं को दल बदलने से पहले अफसरों की तरह कूल ऑफ टाइम काटना पड़े। जातिवादी राजनीति करने वाली पार्टियों पर प्रतिबंध लगे। संविधान की दुहाई देने वाल दल व नेता उप प्रधानमंत्री, उपमुख्यमंत्री जैसे ग़ैर संवैधानिक पद न तो क्रियेट करें न उन पर तैनाती करें। आरक्षित सीटों पर किसी को भी एक बार से ज्यादा चुनाव लड़ने का मौका न मिले। एक बार जीतने या कार्यकाल पूरा होने के बाद उसे सामान्य सीट से मैदान में उतरना पड़े। अल्पसंख्यक शब्द जो मुसलमानों के लिए रूढ़ हो गया है, उसका प्रयोग बंद हो। क्योंकि यह शब्द संविधान का भी प्रतिनिधित्व नहीं करता। जिला पंचायत अध्यक्ष का निर्वाचन मेयर की तरह सीधे जनता से हो। तुष्टिकरण बंद हो। मुफ्त की चीजें देने का वादा करके चुनाव जीतने का चलन बंद हो। मिलावट के खिलाफ अभियान सरकार के एजेंडे में ईमानदारी से आ जाये। कम से कम देश का कोई एक शहर विकास के सभी पैमानों पर खरा उतरने लायक़ हो जाये। महापुरुषों को एक दूसरे से लड़ाने की परंपरा पर विराम लगे। नेताओं में यह कहने का साहस आपके कि संविधान निर्माण में 298 लोग और थे। राजेंद्र बाबू संविधान सभा के अध्यक्ष थे। अंबेडकर जी की देन रिजर्व बैंक व पॉवर ग्रिड भी है। नेताओं के दिल बड़े हों। उनकी ज़बान सोच समझ कर चले। मीडिया को यह साहस हो सके कि वह एजेंडे सा बाहर निकलकर मेरिट पर काम करे। ऊल जूलूल बयानों व हरकतों को कम जगह दे। बच्चों की गूगल अंकल पर निर्भरता कम हो। लोग मोबाइल पर आश्रित होने की जगह उसे केवल अपने लिए उपयोगी बनायें। क्रिकेट उद्योग की जगह खेल बन जाये। बच्चे और युवा सिर्फ खेल देखने की बजाए खुद भी खेलें। उम्मीदों की फेहरिस्त तो खत्म होते न खत्म होगी बस उम्मीद यही है कि कुछ उम्मीदें तो इस साल पूरी हो जाएं।
2025 तो पचास के पड़ाव का आधा रास्ता है। आधा तो बीत चुका है पर बदला कुछ नहीं है। बाकी आधे को बचाना बनाना हम सबकी जिम्मेदारी है क्योंकि जिन्होंने देश को नाउम्मीद किया है उन सरमायेदारों को भी हमीं ने बनाया है। आइए तो हम सब नए साल को वाकई में एक नया साल बनाने का संकल्प लें।

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