कलात्मक शिखर और पहरेदार देवता
मुख्य प्रवेश द्वार पर जैसे ही आप कदम रखते हैं, दोनों ओर वीर हनुमानजी और कालभैरव अपने दिव्य भाव में खड़े नजर आते हैं। मानो कह रहे हों कि यह अदालत खुली तो है, लेकिन न्याय के दरवाजे पर हर पाप का पहरा भी है। मंदिर की दीवारें, पत्थर और शिखर स्थापत्य कला की ऐसी कहानी कहते हैं, जो किताबों से नहीं बल्कि पत्थरों की दरारों से झांकती है। शिवलिंग के नीचे जलधारी को जोड़ने का तरीका इसे स्वयंभू सिद्ध करता है। अलग प्रकृति के पत्थर और उस पर सजे शिव का चिन्मय रूप भक्तों को ठहरकर देखने को विवश कर देता है।
पांडवों की छाप और सदियों पुरानी गवाही
यह सिर्फ मंदिर नहीं, महाभारत काल की एक अमर छाया है। स्थानीय जनश्रुति बताती है कि पांडवों ने अपने वनवास के दौरान इस स्थल को तपस्या और शिव आराधना के लिए चुना था। कहते हैं उन्हीं ने पंचदेवों के साथ इस पंचायतन की नींव रखी थी। विक्रम संवत 1432 में यहां बड़ा जीर्णोद्धार हुआ, जो आज भी पुरानी दीवारों और कुछ शिलालेखों में झलक जाता है। गांववालों ने 2011 में एक बार फिर इसे सजाया-संवारा और इसकी पुरानी गरिमा को नया जीवन दिया।
पूजा, श्रृंगार और रक्षाबंधन का अद्भुत प्रसंग
नीलकंठ महादेव की पूजा में नियम और भाव का ऐसा मेल है जो हर भक्त को बंधे रहने को मजबूर करता है। सुबह जलाभिषेक, बिल्वपत्र, पुष्प और चंदन — शाम को भस्म, दीप और मंत्रोच्चार। वैशाख और श्रावण मास आते ही यहां तीनों पहर विशेष पूजा होती है। सोमवार को भोलेनाथ को अनोखे श्रृंगार में सजाया जाता है। कभी सौम्य भोलेनाथ, तो कभी रौद्र रूप में भक्तों को दर्शन देते हैं। रक्षाबंधन पर यहां एक अद्भुत परंपरा है। गांव में सबसे पहले राखी महादेव को बांधी जाती है। मान्यता है कि भोलेनाथ रक्षा सूत्र बांधने के बाद ही घर-घर भाई-बहन एक-दूसरे को राखी बांधते हैं। यह परंपरा बताती है कि इस पंचायत के न्यायाधीश सिर्फ देवताओं के नहीं, गांववालों के भी संरक्षक हैं।
आस्था का स्तंभ, न्याय की चौखट
गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि यहां कोई काम बिना नीलकंठ महादेव की अनुमति के शुरू नहीं होता — खेत की जुताई हो या नए घर की नींव, नौकरी ज्वाइन करनी हो या कोई व्यापार-सब महादेव की अदालत से आज्ञा लेकर ही शुरू होता है। जब यहां की घंटियां गूंजती हैं तो पूरा वातावरण शिवमय हो उठता है, जैसे पूरा गांव महादेव की सभा में बैठा हो।