सतना। प्राचीन कालीन शिवलिंगों के लिए प्रसिद्ध परसमनिया पठार वास्तव में विष्णुभूमि है। इस पवित्र भूमि में ही होलिका के दहन का कारण बनने वाले प्रह्लाद का जन्म हुआ था और इसी पठार में होलिका का दहन हुआ था। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप का वध करने के लिए नरसिंह भगवान का अवतार लेने वाले भगवान विष्णु द्वारा स्थापित नरसिंह शक्ति पीठ भी यहीं है जिसे अब मां शारदा मंदिर के नाम से जाना जाता है। इसलिए यहां पर मां शारदा के साथ गर्भ गृह में भगवान नरसिंह की प्रतिमा स्थापित है जो 1500 साल पुरानी बताई जाती जाती है। यह खुलासा हाल ही में हुए एक शोध से हुआ है जिसकी पाण्डुलिपि शोधार्थी अतुल गर्ग ने तैयार की है।
इसलिए मां शारदा मंदिर नरसिंह शक्ति पीठ अपने शोध की शुरुआत अतुल गर्ग मां शारदा मंदिर से करते हैं। उन्होंने कहा कि जहां माता सती के अंग गिरे वहां शक्तिपीठ स्थापित किए गए, जहां आभूषण गिरे वहां समशक्ति पीठ स्थापित हुए। लेकिन इसे नृसिंह अवतार भगवान विष्णु ने महादेव शिव के साथ प्रतिस्थापित किया अतः यह नृसिंह शक्ति पीठ कहलाया। यही वजह है कि मैहर शारदा मंदिर 51 शक्ति पीठ में शामिल नहीं अपितु भगवान विष्णु एवं महादेव शिव द्वारा एक साथ संरक्षित यह नृसिंह शक्ति पीठ कहलाया। हालांकि कुछ लोग मैहर नाम को व्याख्या करने की कोशिश करते हुए इसे माई का हार बताते है और गल्प कथा से जोड़ा जाता है कि यहां माता सती का हार गिरा था, जो सही नहीं है। इसका हिन्दु धर्म ग्रंथों में भी कोई उल्लेख नहीं है।
मां शारदा मंदिर के गर्भगृह में स्थित नरसिंह भगवान की प्रतिमापौराणिक गाथाओं से जुड़ता है परसमनिया अतुल गर्ग कहते हैं कि परसमनिया पठार वास्तव में अपभ्रंश है। इसका पुरातन नाम पारषमणि था। पुराणों के अनुसार इस भूमि पर हिरण्याक्ष का वध करने स्वयं भगवान विष्णु ने वराह अवतार लिया था। तभी से इस पवित्र भूमि में भगवान विष्णु को वराह अवतार के रूप में पूजा जाता है। यही वजह है कि इस क्षेत्र के राजघराने के कुल देवता वराह देव हैं। हिरण्याक्ष के वध के कारण उनके भाई हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु के विरोधी हो गए थे। अपने राज्य में श्रीहरि विष्णु की भक्ति पर प्रतिबंध लगा दिया था। संयोगवश उनका अपना पुत्र प्रह्लाद विष्णु के अनन्य भक्त निकला। इसपर हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका (सिंहिका) जिसे बह्मा से अग्नि संरक्षण का वरदान था, उसे प्रह्लाद को मारने का जिम्मा दिया। होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर अग्नि में बैठ गई। लेकिन श्रीहरि विष्णु की वजह से प्रह्लाद तो बच गए लेकिन होलिका जल गईं। इसके बाद भगवान विष्णु ने नरसिंह का अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का वध किया। तभी से यहां पर भगवान नरसिंह अवतार की भी पूजा होने लगी। इसका सबूत इस क्षेत्र में गुप्त कालीन भगवान नरसिंह की प्रतिमा है जो मां शारदा मंदिर मैहर में विराजमान है। आज भी मां शारदा मंदिर में 1500 साल पुरानी नरसिंह अवतार की प्रतिमा मां शारदा के साथ गर्भ गृह में मौजूद है।
वाराह अवतार और परसमनिया अतुल गर्ग के अनुसार शिव वरदान के दुरुपयोग से हिरण्याक्ष ने देवताओं से देवलोक छीन लिया। इसके बाद उसने पृथ्वी को सागर में ही डुबा दिया था। तब महादेव शिव के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने वाराह अवतार में पृथ्वी को सागर से बाहर निकाला एवं हिरण्यवाहु का वध किया। पुराणों के अनुसार पृथ्वी को डुबोते हुए हिरण्यवाहु उस वक्त ऊंचे विंध्य पर्वत पर खडा था। मौजूदा संरचना को देखें तो आज विन्ध्य की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला परसमनिया पठार ही है। यही वजह है कि इसे वराह क्षेत्र कहा जाता है। यहीं पर हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकश्यप को मारने नरसिंह अवतार हुआ और उनके नाम पर शक्ति पीठ स्थापित हुई। इस लिहाज से यह स्थल ही प्रह्लाद का जन्म स्थल और होलिका का दहन स्थल है।
परसमनिया से 80 किमी दूर कारीतलाई स्थित बराह प्रतिमादीक्षित ने भी वराह अवतार को परसमनिया से जोड़ा था सतना में बतौर डिप्टी कलेक्टर रहे स्व. राजीव दीक्षित भी इस थ्यौरी को मानते थे कि परसमनिया मूल रूप से पारषमणि है और वराह से इसका जुड़ाव है। इसके लिए आज की स्थिति में कटनी जिले की कारीतलाई में मौजूद वराह मंदिर की ओर इशारा करते थे। वे कहते थे कि परसमनिया अर्थात पारषमणि विन्ध्य पर्वतमाला का हिस्सा था। उस काल में पारषमणि इसका विस्तार कटनी और उससे भी आगे था। तब की पारषमणि अब परसमनिया में वराह अवतार के रूप में हिरण्याक्ष का वध हुआ था। इसीलिए कारीतलाई में वराह का मंदिर बना हुआ है। आज भी वराह देव की प्रतिमा यहां मौजूद हैं। यह स्थल आज की परसमनिया से लगभग 80 किलोमीटर दूर है। भौगोलिकता के लिहाज से देखें तो हिरण्याक्ष अगर उस क्षेत्र में था तो इस क्षेत्र में हिरण्यकश्यप था। लिहाजा मौजूदा परसमनिया क्षेत्र में नरसिंह अवतार के प्रमाण नजर आते हैं। हालांकि राजीव की यह थ्यौरी उनके भ्रमण शोध के आधार पर मौखिक ही रह गई।
इसलिए स्थापित हुई नरसिंह शक्ति पीठ अतुल बताते हैं कि हिरण्यकश्यप वध के बाद भगवान विष्णु ने प्रह्लाद के वंश की रक्षा का वचन दिया था। उनके वंश में राजा बलि हुए जिसे भगवान विष्णु ने बामन अवतार लेकर पाताललोक में भेजा था। इनका पुत्र बाणासुर पाताल लोक से सुरंगों के माध्यम से सोनभद्र तट पर शिवार्चन के लिए आता था। वह स्थल है मारकण्डेय आश्रम। इसी लिए इस स्थल को प्राचीन रूप में बाणासुर के नाम से भी जाना जाता था। जो अब बाणसागर जलाशय क्षेत्र है। बाणासुर यहां आतंक फैलाता था लिहाजा उसके आतंक से रक्षा के लिए नरसिंह पीठ की स्थापना की गई थी। बाणासुर का क्षेत्र सीमित करने नरसिंह टेकरी भी स्थापित थी। यहां बाणासुर को भगवान नरसिंह की टेक थी। यह स्थल सतना शहर की कृपालपुर इलाके की नरसिंह टेकरी है। जहां भगवान विष्णु का प्राचीन मंदिर भी है।
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