शोध नोबेल पुरस्कार विजेता एस्थर डुफलो और अभिजीत बनर्जी की टीम ने किया। उन्होंने यह पता लगाने की कोशिश की कि क्या रोजमर्रा का मैथमेटिक्स कौशल स्कूल में उपयोगी हो सकता है और क्या स्कूल में सीखी गई मैथमेटिक्स रोजमर्रा में काम आती है। शोधकर्ताओं ने दिल्ली और कोलकाता के बाजारों में 1,436 स्ट्र्रीट के बच्चों और 471 स्कूली बच्चों का अध्ययन किया। शोध में पाया गया कि स्ट्रीट के बच्चे बिक्री के लेन-देन को किसी तरह की मदद के बगैर हल कर सकते हैं। स्कूल के बच्चे मैथ्स के टेक्स्टबुक वाले सवाल हल करने में अच्छे होते हैं, लेकिन बाजार के लेन-देन की गणना नहीं कर पाते।
मानसिक शॉर्टकट्स और लिखित गणना अध्ययन में शामिल बच्चे 13 से 15 साल के थे। एक फीसदी से भी कम स्कूल जाने वाले बच्चे उन व्यावहारिक सवालों को हल कर पाए, जो एक तिहाई कामकाजी बच्चों ने आसानी से हल कर दिए। कामकाजी बच्चे मानसिक शॉर्टकट्स का इस्तेमाल करते हैं, जबकि स्कूल जाने वाले बच्चे लिखित गणना पर निर्भर रहते हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि भारत में शिक्षा प्रणाली इस अंतर को दूर करने में विफल रही है।
आधे से ज्यादा घटाने में कमजोर बाजारों में काम करने वाले जिन बच्चों को अध्ययन में शामिल किया गया, उनमें कई ऐसे थे, जिन्होंने स्कूलों में एडमिशन लिया था, लेकिन ज्यादा नहीं पढ़ पाए। इनमें से सिर्फ 32% बच्चे तीन अंकों की संख्या को एक अंक से भाग दे पाए। वहीं 54% बच्चे दो अंकों की संख्या में से घटाना कर सके। सभी बच्चे दूसरी कक्षा में पढ़ चुके थे। इस कक्षा में जोडऩा-घटाना सिखाया जाता है।