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जातीय जनगणना: सामाजिक न्याय की ओर कदम या राजनीति

— प्रो. आरएन त्रिपाठी
(समाजशास्त्र विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी)

जयपुरMay 02, 2025 / 12:47 pm

विकास माथुर

देश में अगली जनगणना में जातियों की भी गिनती होगी। केंद्र ने इस फैसले पर मुहर लगा दी है। जातियों की गिनती जनगणना के साथ की जाएगी। अब तक केंद्र सरकार जातीय जनगणना के सवाल से बचती रही है। इस सोच को विभाजनकारी भी बताया जा रहा था। अब अचानक जिस प्रकार यह निर्णय लिया गया कि उससे बहुत सारे नेता इसे अपनी विजय मान रहे हैं।
जातीय जनगणना का मुद्दा काफी अर्से से जोर पकड़ रहा था। इसलिए इस मुद्दे पर निर्णय अनिवार्य-सा होता जा रहा था। वैसे यह मुद़्दा नया नहीं है, राम मनोहर लोहिया ने आज से 50 साल पहले इस मुद्दे को उठाया था। उन्होंने कहा था कि इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारत की राजनीति की सच्चाई यहां की जाति है। कई दलों ने इस मुद्दे को उठाया और लगातार मांग करते रहे। बिहार ने तो सबसे आगे बढ़कर अक्टूबर 2023 में जातीय सर्वेक्षण के आंकड़े जारी कर दिए थे। बिहार जाति सर्वेक्षण के अनुसार, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) राज्य की कुल आबादी का 63 प्रतिशत है, जिसमें अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) सबसे बड़ा हिस्सा है। पिछड़ा वर्ग 27.13 फीसदी है, अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36.01 फीसदी और सामान्य वर्ग 15.52 फीसदी है। भारत में 1931 में जातीय जनगणना हुई थी, उसके बाद देश में होने वाली जनगणनाओं में जातियों की गिनती नहीं की गई। जनगणना में दलितों और आदिवासियों की संख्या तो गिनी जाती है लेकिन पिछड़ी और अति पिछड़ी (ओबीसी और ईबीसी) जातियों के कितने लोग देश में हैं, इसकी गिनती नहीं होती है। केंद्र सरकार के फैसले के बाद अब फिर से जाति जनगणना होगी।
वर्ष 2010 में मनमोहन सिंह ने एक अर्थशास्त्री के नाते प्रधानमंत्री के रूप में अपने एक वक्तव्य में इसकी वकालत की थी और मंत्रियों के समूह के सम्मुख इस प्रस्ताव को रखा था परंतु वह राजनीतिक झंझावात के हवाले हो गया और वह जाति जनगणना का विचार आगे नहीं बढ़ पाया। पिछले दो-तीन वर्ष से विपक्ष, विशेष रूप से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और समाजवादी पार्टी ने इस मांग को जोरदार तरीके से उठाया। भाजपा के पिछड़े वर्ग के नेता भी कहीं न कहीं इसके समर्थन में दिखने लगे थे और वे अपना मंतव्य यदा-कदा रख देते थे। भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी सच्चाई और राजनीति की मेरुदंड है जाति। यह एक जमीनी हकीकत है और अंतत: संपूर्ण देश की राजनीति के मूल में यही जाति ही होती है।
टिकट बंटवारे, चुनाव प्रचार, चुनाव परिणाम आने के बाद मंत्रिमंडल में पद देने या नीतिगत निर्णय लेने सहित सबमें जाति का प्रमुख स्थान होता है। वैसे तो आजादी के बाद से ही भारत की राजनीति में जाति का प्रभाव रहा है, लेकिन वीपी सिंह सरकार के समय इसने अपना खास प्रभाव दिखाया। मंडल आयोग की रिपोर्ट के कारण जातीय राजनीति ने नया स्वरूप सामने आया। मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर 27 प्रतिशत आरक्षण अन्य पिछड़ा वर्ग को मिला। इसका विरोध भी हुआ, लेकिन आरक्षण का यह प्रावधान बना रहा। पिछड़े वर्ग को आरक्षण का लाभ देने के लिए भी जातीय आबादी को ही आधार बनाया गया था। बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने भी ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी’ सिद्धांत पर जोर दिया था। दुर्भाग्यवश जिन नेताओं ने इस मुद्दे को उठाया, वे स्वजाति केंद्रित राजनीति तक ही सीमित रहे, जिससे दूसरी जातियों को उनका हक नहीं मिल सका।
जातीय जनगणना के बाद इसका समाजशास्त्रीय विश्लेषण होना ही चाहिए। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इससे भारत की एकता पर कोई आंच नहीं आए। जातीय आधार पर समाज में विभाजन नहीं बढऩा चाहिए। तात्कालिक आरक्षण जैसे लाभों के लिए जातिगत जनगणना निश्चित रूप से एक सकारात्मक परिवर्तन लाएगी। भारत के पिछड़े वर्ग, जनजाति और अनुसूचित जाति वर्ग में बहुत सारी ऐसी जातियां हैं जो आज भी अपने ही वर्ग की जातियों से काफी पिछड़ी हैं। उन्हें आरक्षण का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया। इसलिए जातीय जनगणना को पारदर्शी तरीके से पूरा कर, आरक्षण का किसको कितना लाभ मिला है, इसका भी आकलन किया जाना चाहिए। तभी जाकर इसका मुख्य उद्देश्य पूरा होगा।
समाज की जो भी जाति हाशिए पर हो, जब तक उसको आरक्षण का लाभ नहीं मिलता, तब तक इस तरह की कवायद का कोई फायदा नहीं है। जातीय आधार के साथ आर्थिक आधार पर भी जनगणना अति आवश्यक होगा, क्योंकि मुख्य रूप से प्रति व्यक्ति आय ही सही सच्चाई है पिछड़ेपन की। देश की जनता की सही आर्थिक तस्वीर सामने आए और हम देखें की प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से कौनसा व्यक्ति-समाज कहां है, तब इस गणना का लक्ष्य पूरा होगा, नहीं तो यह जातियों के वर्चस्व की पुनस्र्थापना का माध्यम बन जाएगी। जिस भारत का हम स्वप्न देखना चाहते हैं, वहां जातीय भेद नहीं होना चाहिए। जातीय और धार्मिक भेदभाव से परे उठकर ही कोई देश विकास की गति पर आगे बढ़ सकता है। हर समुदाय का विकास होना चाहिए।

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