केंद्र सरकार का जातीय जनगणना कराने का फैसला भी इसी जमीनी हकीकत के आगे झुकने जैसा लगता है। यह इसलिए, क्योंकि सैद्धांतिक तौर पर तो न सिर्फ भाजपा बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इसके खिलाफ ही रहा है। न सिर्फ देश का दक्षिण पंथ बल्कि, कांग्रेस भी घोषित तौर पर हमेशा जात-पात की रूढिय़ों को तोडऩे की पक्षधर रही है। हालांकि इसके लिए उसने कुछ खास नहीं किया।
केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का यह कहना सही है कि प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जातीय आधार पर आरक्षण के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने इसके विरोध में मुख्यमंत्रियों को पत्र भी लिखा था। अब उसी कांग्रेस और उन्हीं नेहरू के वारिस जातीय आधार पर जनगणना कराकर सरकारी सेवाओं में आरक्षण का दायरा बढ़ाने की वकालत कर रहे हैं। देखा जाए तो प्रस्तावित जातीय जनगणना के निष्कर्षों के आधार पर विभिन्न सामाजिक वर्गों को उनका हक देने के मामले में देश के दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस ने एक तरह से यू-टर्न ले लिया है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में खुश होने की बारी जनता दल के सुप्रीमो लालू यादव जैसे नेताओं की है, जिनकी पूरी राजनीति की धुरी जातीय आधार पर ही घूमती रही है। लालू यादव ने कहा भी ‘हम इन्हें (संघ-भाजपा) नचाते रहेंगे।’
हकीकत तो यह है कि भारतीय समाज में जात-पात की जड़ें इतनी गहरी तक धंसी हैं कि इससे मुक्ति आसान नहीं है। अपने आप तो ऐसा होने से रहा। वस्तुत: जात-पात की बेडिय़ां तोडऩे का यह काम देश के राजनीतिक और सामाजिक नेतृत्व को करना था, जो आजादी के 77 साल बाद भी ऐसा करने में विफल रहे। सिर्फ नारे लगाने से जात-पात खत्म होना होता तो कब का हो जाता। सच्चाई तो यही है कि ऐसे नारे भी अवसर देखकर लगाए जाते हैं, इनको लेकर प्रयास नजर नहीं आते।
जात-पात से मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक रोटी और बेटी का रिश्ता जात-पात से मुक्त न हो जाए। इस दिशा में जितना काम होना चाहिए नहीं हुआ है। किसी प्रभावशाली सामाजिक या राजनीतिक संगठन ने इसके प्रयास नहीं किए हैं। इसका उल्टा जरूर हुआ कि सामाजिक संगठन भी जातीय आधार पर बन रहे हैं जो जातीय व्यवस्था को और मजबूत करने में लगे हुए हैं और राजनीतिक दल चुनावों के मौकों पर ऐसे संगठनों का चुनावी लाभ उठा रहे हैं।