scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड – स्त्री अपरा तथा स्त्रैण परा प्रकृति | Patrika Editor In Chief Gulab Kothari Special Article On 21st June 2025 Sharir Hi Brahmand The Feminine Placenta And The Feminine Supernatural Nature | Patrika News
ओपिनियन

शरीर ही ब्रह्माण्ड – स्त्री अपरा तथा स्त्रैण परा प्रकृति

मां केवल विश्वकर्मा है। निर्माण करती है। उसके पास नक्शा आता है, सामग्री आती है और समय की सीमा (योनि के अनुसार) होती है। माता-पिता मिलकर जीव को आमंत्रित करते हैं। ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।

जयपुरJun 21, 2025 / 08:12 am

Gulab Kothari

समय बदलता रहेगा, सभ्यताएं आती-जाती रहेंगी, प्रकृति शाश्वत है। न तो प्रकृति के तत्त्व बदलने वाले, न ही सिद्धान्त। आत्मा का स्वरूप, कर्मफल का सिद्धान्त, पूर्वजन्म-पुनर्जन्म और मोक्ष रूपी माया की उठापटक भी नहीं बदलने वाली। जीव की एक यात्रा है, शरीर की एक यात्रा है। कर्म के अनुसार योनि का निर्धारण सूक्ष्म स्तर पर होता है, चेतना के स्तर पर होता है। शरीर का निर्माण योनि के अनुसार भूत विभाग करता है। अपरा प्रकृति-अष्टधा प्रकृति- पांच महाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार- जड़ रूप में कार्य करते हैं।
पदार्थ और ऊर्जा सृष्टि के दो घटक हैं। भारत में इनको लक्ष्मी और सरस्वती के रूप में जाना जाता है। ये ही सोम और अग्नि हैं। इन्हीं के कारण जगत को अग्निसोमात्मक कहा जाता है। मह:लोक में अग्नि में सोम आहुत होता है- सृष्टि यज्ञ के लिए। अत्रि प्राण के कारण आत्मा प्रतिबिम्बित होता है। यहीं पर सूर्य-चन्द्रमा-पृथ्वी के बिम्ब भी आत्मा पर पड़ते हैं। सूर्य के साथ पृथ्वी, पृथ्वी के साथ चन्द्रमा भी परमेष्ठी मण्डल की परिक्रमा करते हैं, जहां मह:लोक की स्थिति है। इन तीनों के बिम्बों से क्रमश: अहंकृति-प्रकृति-आकृति का निर्माण तय हो जाता है- परा प्रकृति के द्वारा। यह चैतन्य सृष्टि है- जीव है।
प्रकृति की प्रत्येक गति दोनों दिशाओं में होती है। गति के साथ आगति भी होती है और स्थिति भी। व्यक्ति मृत्यु लोक में भी जाता है, स्वर्ग लोक में भी जाता है और मोक्ष में जाकर स्थित भी होता है। गति केवल प्राण में होती है। न मन में गति है, न ही वाक् में। तीनों मिलकर आत्मा कहलाते हैं। वाक् शरीर है- मां निर्माण करती है, किन्तु मिट्टी (पंच महाभूत) की होने से जड़ कहलाती है। देह का निर्माण भी अन्न से होता है, जो मिट्टी (पृथ्वी) में से उत्पन्न होता है। धरती भी मां है। अन्न भी मां है। किसकी?
निर्जीव वस्तु को पैदा करना मशीन जैसा कर्म है। एक तंत्र के अनुसार होता जाता है। जिस प्रकार ८४ लाख योनियों के शरीर बनते हैं। इन सबकी भी अपनी-अपनी मां होती है। तब क्या मां का काम निर्जीव वस्तु पैदा करना है? क्या ब्रह्म ने माया को शरीर पैदा करने के लिए बनाया था? सच तो यही है। ‘बहुस्याम्’ का अर्थ भी तो यही है। क्या कोई स्त्री यह बात सुनकर संतुष्ट हो जाएगी कि उसका कार्य शरीर बनाने तक का ही है? नहीं न? क्योंकि एक सवाल छूट रहा है- शरीर किसका! यह कार्य मां के कार्य क्षेत्र के बाहर है।
मां केवल विश्वकर्मा है। निर्माण करती है। उसके पास नक्शा आता है, सामग्री आती है और समय की सीमा (योनि के अनुसार) होती है। माता-पिता मिलकर जीव को आमंत्रित करते हैं। ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। ईश्वर को सन्तान पाने का उद्देश्य बताते हैं- क्यों और कैसी संतान चाहिए। उधर जीव भी कर्मफल भोगकर पुन: जन्म लेने को भ्रमण करता है। परा प्रकृति उसकी नई योनि का निर्धारण करती है। अन्न के माध्यम से पुरुष शरीर में व्याप्त कर देती है। इसी जीव को ग्रहण करने, स्त्री पुरुष के पास आती है। मां रूप में सन्तान प्राप्ति को ही स्त्री अपनी पूर्णता मानती है। ब्रह्म ने भी इसी उद्देश्य से माया को पैदा किया था।
ब्रह्म केवल कामना करता है और स्वयं अपने अंश रूप में परा प्रकृति की चयनित योनि में प्रवेश कर जाता है। हमारे यहां स्त्री-पुरुष दाम्पत्य आत्मा पर आधारित है। शरीर के साथ समाप्त नहीं हो जाता। स्त्री का सौम्य शरीर पुरुष शरीर की अग्नि में आहुत होता है- भावगत रूप में। पति के साथ उसकी आत्म संस्था का ही साथ रहता है। देह पितृगृह में छूट जाती है। शरीर में प्रवेश करके स्त्री (प्राण) पुरुष शरीर से सम्पूर्ण जीवात्मा को एकत्र करती है और निकास द्वार तक ले जाती है। इसके लिए पुरुष को भी प्रेरित करती है। अन्त में सम्पूर्ण जीवात्मा को पुरुष शरीर से निकालकर अपने शरीर में धारण कर लेती है। पुरुष आगे के लिए मुक्त हो जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में पुरुष का कार्य क्षण मात्र का रहता है। वह पुन: उदासीन होकर लौट जाता है।
यह भी पढ़ें

शरीर ही ब्रह्माण्ड – शब्द और अर्थ स्त्री की कलाएं

सर्वप्रथम स्त्री ब्रह्म बीज के सभी आवरणों को वेदी की अग्नि में भस्मीभूत करती है। तब शोणित में बुद्बुद् बनता है- कलल तैयार होता है। मातरिश्वा वायु बुद्बुद् बनने में भी निमित्त बनता है। जिस प्रकार जल से पृथ्वी का निर्माण होता है, उसी प्रकार जल से शरीर रूपी पृथ्वी का निर्माण होता है- उन्हीं आठ स्तरों पर। साधारणत: अत्रिप्राण की बहुलता से शोणित ऋतुकाल में बाहर निकल जाता है। अत्रिप्राण प्रकाश का बाधक प्राण है। अत: आत्मा के आवरण रूप में, शरीर निर्माण में काम आता है। पृथ्वी के अत्रि प्राण से चन्द्रमा का निर्माण होता है। चन्द्रमा अत्रि पुत्र है। हमारी देह भी अत्रि निर्मित है। देह की शेष धातुएं अन्न से निर्मित होती है। अन्न से क्रमश: रस-रक्त-मांस-मेद-अस्थि-मज्जा-शुक्र बनते हैं। मां और शिशु के शरीरों की धातुएं अन्न से ही निर्मित होती हैं। स्त्री शरीर में शुक्र के स्थान पर शोणित बनता है।
जीवात्मा को केन्द्र में रखकर प्राणी का शरीर तैयार होता जाता है- योनि के अनुरूप। जीवात्मा पूर्ण चैतन्य अवस्था में रहता है। भोग योनियों में जीवात्मा निष्क्रिय रहता है। कर्मफल के अनुसार ऋणानुबन्ध खोलता रहता है। नए कर्म भी सृजित नहीं होते। मनुष्य आत्मा का भी एक भाग भोगयोनि का होता है जिसके लिए वह मानव देह को प्राप्त होता है। इतना सब तो सभी प्राणियों में समान रहता है। यहां चेतना का आदान-प्रदान नहीं है।
चेतना के कार्य का क्षेत्र परा प्रकृति है-

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।। (गीता 7.5)

पुरुष की भूमिका में चेतना का क्षेत्र बीजप्रदाता रूप है। जैसे ही बीज स्त्री शरीर में पहुंचता है, चेतना कार्यरत हो जाती है। परा प्रकृति ही स्त्रैण भाव है। बीज का ग्रहण, संरक्षण, पोषण संकोच आदि स्त्रैण भाव हैं। परा प्रकृति का यह सूक्ष्म स्वरूप केवल मानव स्त्री को उपलब्ध रहता है। यहां उसका सारा कर्म दिव्यता का है। आत्मा का क्षेत्र है, शरीर गौण है। स्त्री का आत्मा आने वाले जीव को भी पहचान लेता है। कहां से आया, क्यों आया, यह सब उसकी प्रज्ञा तक पहुंच जाता है। इसी के चारों ओर स्त्री शरीर का निर्माण करती है।
यह भी पढ़ें

शरीर ही ब्रह्माण्ड – स्त्री है लक्ष्मी-सरस्वती

जीव के साथ सारा आदान-प्रदान आत्मा के स्तर का होता है। स्वप्न में भी जीव की जानकारियां प्राप्त होती रहती हैं। व्यवहार-आहार-विहार भी जीव की सूचना देते रहते हैं। जो शरीर का निर्माण है, पदार्थ का, अर्थ का, लक्ष्मी का क्षेत्र है। जीव के रूपान्तरण, परिष्कार आदि का क्षेत्र सरस्वती का, नाद का, स्पन्दनों या शब्द वाक् का क्षेत्र है। लक्ष्मी स्त्री है, सरस्वती स्त्रैण है, सूक्ष्म है।
जीव का सारा निर्माण ध्वनि के स्पन्दनों के द्वारा मन के भावों से, हृदयस्थ कामना से संचालित होता हैं। यह सारा मां की दिव्यता का कार्यक्षेत्र है। पुरुष की दौड़ यहां तक नहीं है। वह सूूक्ष्म का यात्री नहीं है। स्त्री के कार्यक्षेत्र की सारी बातें परोक्ष भाषा की होती है जो पुरुष की समझ के बाहर है। वैसे भी भीतर उसका सोम अति अल्प होने से वह तो स्त्री को भी नहीं समझता। स्त्रैण भाव को समझने के लिए देवभाव में जाना पडे़गा। बहुत तपना पडे़गा।
स्त्री और स्त्रैण भाव दोनों स्वरूप मिलकर शिशु का निर्माण करते हैं। आज सिविल मैरिज में दो शरीर मिलते हैं। दोनों ही मिट्टी के बने होते हैं। आत्मा का मिलन ही तो दाम्पत्य यज्ञ है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

Hindi News / Opinion / शरीर ही ब्रह्माण्ड – स्त्री अपरा तथा स्त्रैण परा प्रकृति

ट्रेंडिंग वीडियो