पुरुष-प्रकृति रूप मनुष्य सृष्टि भी पुरुष-स्त्री रूप में ही कर्मप्रधान योनि बनती है। अन्य योनियां स्वतंत्र कर्म योनियां न होकर मात्र भोग योनियां हैं—ईश्वर की विभूतियां हैं। मानव एक संकल्पित योनि है। दृष्टि विशेष के साथ, प्राकृतिक चक्र के अनुकूल जीवनयापन करती है। स्वविवेक को तैयार करती है, प्रकृति को आत्मसात करती है। आगे से आगे ऋषि प्राण—अग्नि और पारमेष्ठ्य सोम ही भिन्न-भिन्न रूप लेकर ब्रह्म का विश्व बनाते हैं- बिगाड़ते हैं। जैसे बरसात में बच्चे खेल-खेल में मिट्टी के घर बनाते-बिगाड़ते हैं। जीवात्मा भी शरीर रूपों में मिलते-बिछुड़ते रहते हैं। जन्म-जन्मान्तर।
परमेष्ठी समुद्र में देवासुर प्राणों की मन्थन प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। प्राकृतिक क्रियाएं-नक्षत्रों की, ग्रहों की, अग्नि-वायु आदि की, कर्मफलों की भी सृष्टि को प्रभावित करती रहती हैं। हम सभी संवत्सर के प्रतिकृति स्वरूप में ही उत्पन्न होते हैं। सूर्य ही हमारा आत्मा है। उसके मनोता-ज्योति, आयु, गौ ही हमारे मन-प्राण-वाक् बनते हैं। पुरुष अग्नि प्रधान और स्त्री सोम प्रधान होती है। अग्नि प्राण देव वाचक है। देव प्रकाश क्षेत्र में ही रहते हैं। सोम रात्रि रूप, शीतल एवं वरुण प्रधान होता है। इन्द्र देवराज कहलाते हैं। सूर्य ही सौरमण्डल के ग्रहों का नियन्ता भी है।
स्त्री-पुरुष दोनों का आत्मा सूर्य है, किन्तु शरीर परा और अपरा प्रकृतियों में बंटा हुआ है। शरीर लक्ष्मी है, पृथ्वी है, स्त्री ही निर्माता है। माया के सारे गुण स्त्री में रहते हैं। इनके लिए किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं है। स्त्री-पुरुष संयोग भी प्रकृति ही कराती है। कुछ सम्बन्ध अति घनिष्ठ होते हैं। कुछ कटुता के चरम पर होते हैं। ज्योतिषी इनको पूर्व जन्मों का योग मानते हैं। दोनोें में से किसी एक का सूर्य दूसरे के चन्द्रमा में हो तो आत्मीय भाव की प्रगाढ़ता रहेगी। यदि दोनों का शुक्र एवं मंगल एक ही राशि में हो तो मंगल सदा शुक्र पर आक्रामक रहेगा।
पुरुष की शक्ति उसके शुक्र में रहती है और स्त्री की शोणित में। स्त्री में काम पुरुष की तुलना में आठ गुणा होता है। फिर भी पुरुष काम क्षणिक है, स्त्रैण में स्थायी भाव है। सोम अग्नि को देखते ही दौड़ पड़ता है। आहुत होने। स्त्री भीतर अग्नि ही है, तुरन्त ज्वाला बन जाती है। स्त्री ही कामना रूप में पुरुष के प्रत्येक अंग में प्रतिष्ठित शुक्रात्म भाव को एकत्र करके स्वयं के शरीर में आहुत करवाती है। स्त्री-काम के जागरण से लेकर आहुति तक समय लगता है। पुरुष को मात्र आहुत होना है। यह क्षणिक कर्म है।
पुरुष बाहर अग्नि है—स्त्री की सौम्य देह इसकी शक्ति है। पुरुष भीतर सोम है— (घन-तरल-विरल)। इसकी प्रेरक कामना है- (घन-तरल-विरल)। यही कामना स्त्री के भीतर की अग्नि बनती है—घन-तरल-विरल। आहुति के बाद कामना ही वाक् बन जाती है। पुरुष भीतर जीवात्मा रूप प्रसवित होता है, जिसे पुरुष के भीतर सौम्य माधुर्य आकर्षित करके आमंत्रित करता है। पुरुष का परा क्षेत्र है, अग्नि की संकल्प शक्ति से (प्राणरूप) निर्माण करते हैं। स्त्री-पुरुष दोनों में परा-अपरा शक्तियां ही यज्ञ का कारक बन जाती हैं। परिणाम निश्चित ही देव के हाथ में होता है। हम अधिष्ठान, कर्म, करण और चेष्टा के वाहक हैं।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्। विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।। (गीता १८/१४) चेष्टा दैहिक क्रिया है, करण मानसिक क्रिया है। दैहिक क्रिया शरीर निर्माण का हेतु है, किन्तु मानसिक क्रिया जीवात्मा के संस्कार से जुड़ी है। यही जीवात्मा के योगी-भोगी-रोगी के स्वरूप का निर्माण करती है। आज भावना-कामना से मुक्त मनोरंजन-रूप क्रिया रह गई। नशा इस मनोरंजन का पूर्वार्द्ध हो गया। न मानव भाव जाग्रत है, न पशु भाव, न ही दानवता। संवेदनहीन क्रिया है। परिणाम भी अर्द्ध विकसित सन्तान होती है। ईश्वर-आस्था इस सम्पूर्ण क्रिया से पृथक् ही रहती है। इसके अभाव में भी जीवात्मा संस्कारित नहीं होता। वह जैविक सन्तान रूप में ही देह धारण करता है। सम्पूर्ण यज्ञ फिर भी अर्थ-ब्रह्म आधारित (चेतना की अल्पता) रहता है। शब्द-ब्रह्म गौण रहता है।
शब्द-ब्रह्म सूक्ष्म धरातल का (परावाक्) का क्षेत्र है जहां स्त्री ही पहुंच सकती है। अत: प्रजनन यज्ञ की भोक्ता स्त्री ही होती है। इसमें उसका लक्ष्य और संकल्प दोनों काम आते हैं। वह अपने लक्ष्य (सन्तान प्राप्ति) के प्रति संकल्पित रहती है। यही उसके विवाह का भी उद्देश्य होता है—भोग नहीं होता। अत: जहां सन्तान की अपरा प्रकृति पुरुष से प्रभावित होती है, वहीं उसकी परा संस्था पर मां के भावों का प्रभाव अधिक होता है। कई बार पति की कामनापूर्ति ही लक्ष्य होता है। ऐसे में परिणाम नहीं भी आते। विवाह पूर्व के सम्बन्ध भी अपना प्रभाव दिखाते हैं। आज तो आय का साधन, विनिमय मुद्रा अथवा विदेश नीति (जासूसी) में भी यह स्वरूप भी स्त्री का स्पष्ट दिखाई दे रहा है। लिव-इन में भी संतति निरोध ही प्रधान लक्ष्य रहता है। इसी के साथ स्त्री का बढ़ता आग्नेय रूप उसे उपभोक्ता सामग्री के रूप में- विशेषकर युवा पीढ़ी में- प्रतिष्ठित कर रहा है। लिव-इन रिलेशन भी मूल में तो इसी की अभिव्यक्ति है।
स्त्री का मातृरूप सिमटता जा रहा है। सन्तान पैदा कर देना ही मातृत्व नहीं है। हर प्राणी के सन्तान होती है। हर मादा को देवी नहीं कहा जाता। जो सन्तान में देव भावों का, दिव्यता का पोषण करती है—बिना किसी अपेक्षा भाव के, वही मां है। मां के हृदय में ब्रह्म है—रस है। रसो वै स:। मां ही रस है, ब्रह्म है। अर्द्धनारीश्वर का भाव कहता है कि स्त्री-पुरुष मां भी है।
या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। क्रमश: gulabkothari@epatrika.com