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प्रतिष्ठा को एक और धक्का : सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव आचरण को संदिग्ध मान लिया

पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी के जन्मशती वर्ष के मौके पर उनके रचना संसार से जुड़ी साप्ताहिक कड़ियों की शुरुआत की गई है। इनमें उनके अग्रलेख, यात्रा वृत्तांत, वेद विज्ञान से जुड़ी जानकारी और काव्य रचनाओं के चुने हुए अंश हर सप्ताह पाठकों तक पहुंचाए जा रहे हैं।

जयपुरJun 27, 2025 / 01:09 pm

harish Parashar

पद पर रहते हुए किसी प्रधानमंत्री के निर्वाचन को अदालत द्वारा अवैध घोषित करना भारतीय लोकतंत्र के लिए बड़ी घटना थी। जी हां, पचास बरस पहले यानी 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू किया गया तो उसकी पृष्ठभूमि में 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह आदेश ही था। अगले ही दिन से आपातकाल लागू होने तक कुलिश जी ने लगातार अपने अग्रलेखों में देश के सम्मुख मौजूद परिस्थितियों का विवेचन किया।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के विरुद्ध प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की प्रार्थना पर जो सीमित स्थगनादेश सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशकालीन न्यायाधीश कृष्ण अय्यर ने दिया है, उससे हालात ने फिर एक मोड़ ले लिया है। न्यायाधीश ने श्रीमती गांधी की संसद सदस्यता पर कई तरह की पाबन्दियां भी लगा दीं और उन्हें यह भी कह दिया है कि प्रधानमंत्री पद पर बनी रह सकती हैं। संसद सदस्य के नाते वे लोकसभा में बोल नहीं सकती। मतदान नहीं कर सकती और भत्ता नहीं उठा सकती, परन्तु प्रधानमंत्री पद पर बनी रहकर वे इस पद की जिम्मेदारी निभाने के प्रयोजन से बोल सकती है। आदेश का विश्लेषण किया जाए, तो यही निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने प्रधानमंत्री के नाते श्रीमती गांधी की विशेष हैसियत को माना है लेकिन उसी तरह जैसे छह महीने के लिए मनोनीत मुख्यमंत्री या मंत्री को माना जाता है। यदि श्रीमती गांधी प्रधानमंत्री पद पर बनी भी रहती है, तो संदिग्ध आचरण के साथ बनी रहेंगी और लोकसभा में मतदान के अधिकार से वंचित रहेंगी। कांग्रेस दल को यह स्थिति कैसी लगेगी, यह तो न कहने की जरूरत है, न गुंजाइश ही बची है, लेकिन श्रीमती गांधी की प्रतिष्ठा को सर्वोच्च न्यायालय के नवीनतम आदेश से एक और धक्का लगा है।
(25 जून 1975 के अंक में ‘एक और धक्का’ अग्रलेख से)

लोकतांत्रिक व्यवस्था में जीवट

देश के कोटि-कोटि जनों के भाग्य को मुट्ठी में रखने वाली प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का अपना भाग्य इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश की लेखनी के एक घुमाव से अधरझूल में पड़ गया। स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक अनहोनी हो गई। जैसे किसी ने अश्वमेघ के घोड़े की लगाम पकड़ ली। इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर उन्हें छह साल के लिए चुनाव लडऩे से वंचित कर दिया गया। हाईकोर्ट ने २० दिन यथास्थिति का अवसर दिया है। इस बीच क्या कुछ होता है, वह देश के बच्चे-बच्चे के लिए असाधारण महत्व रखने वाला होगा। स्थिति आज इतनी पेचीदी है कि किसी निष्कर्ष का प्रयत्न करना जल्दबाजी होगी। इतना ही कह सकते हैं कि हालात इंदिरा गांधी के माफिक नहीं हैं। एक तथ्य अवश्य उभर कर आया है कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुत कुछ जीवट है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री न्यायालयों के कटघरों में खड़े होते हैं।
(13 जून 1975 को ‘नाजुक दौर’ शीर्षक अग्रलेख)
दिए थे आपातकाल के संकेत

प्रधानमंत्री निवास पर जिस तरह से कांग्रेसजनों का मेला लगा रहता है,उसे देखकर यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि सभी प्रधानमंत्री के भक्त हैं। यह एक बहाव है जिसमें कोई पीछे नहीं रहना चाहता। पर्दे के पीछे भी बहुत कुछ हो रहा है। प्रधानमंत्री की नजर पर्दे के पीछे की मंत्रणाओं पर ही ज्यादा होगी। कहीं उत्तराधिकार पर विचार चल रहा है तो कहीं जुलूस निकालने की योजनाएं बन रहीं है। कहीं संसद को भंग कर आपातकालीन सरकार ही कायम करने की बात सोची जा रही है। जो बाहर दिखाई दे रहा है, भीतर वैसा नहीं है। कांग्रेस दल में वे नेता भी हैं जो श्रीमती गांधी के एक इशारे पर रातोंरात वर्चस्वहीन हो चुके हैं। सब लोग उस क्षण का इंतजार कर रहे हैं तब सुप्रीम कोर्ट, प्रधानमंत्री की अपील के साथ स्थगन की प्रार्थना पर फैसला देगी। कोर्ट जो भी फैसला दे, यह अवश्यम्भावी है कि कांग्रेस में एक बार फिर उथल-पुथल मचेगी।
(17 जून 1975 को ‘कानून पर राजनीति’ अग्रलेख के अंश)
…तो अपदस्थ होना ही पड़ेगा

१२ जून से शुरू हुए इस प्रकरण में एक बात जो निरंतर देखने में आई है वह यह है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला श्रीमती इंदिरा गांधी के लिए एक निजी समस्या नहीं रही। देश का एक बहुत बड़ा तबका यह मानता है कि श्रीमती इंदिरा गांधी को अपने पद की मर्यादा और न्यायपालिका का सम्मान रखने के लिए त्यागपत्र देना चाहिए था। उन्होंने ऐसा नहीं किया और वे करना भी नहीं चाहतीं। अत: इसका अंतिम निर्णय चुनाव मैदान में ही होगा। देश का जनमत यदि नहीं चाहता, जैसा कि गुजरात में हुआ है, तो उन्हें अपदस्थ होना ही पड़ेगा। कानून में तो ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि बीस दिन की अवधि में उन्हें प्रधानमंत्री के पद से हटा दिया जाए।
(24 जून 1975 को ‘फैसला जो भी हो’ अग्रलेख के अंश)

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