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“अनाधिकार भोग है अतिक्रमण” पर प्रतिक्रियाएं: अति बुरी, एक दूसरे की रक्षा और सम्मान का भाव जरूरी

मन की रागात्मक प्रवृत्ति, बिना स्वामी की अनुमति के उसकी वस्तु के भोग की आदत को अतिक्रमण और अनाधिकार चेष्टा के रूप में निरूपित कर इससे बचने की सलाह देते पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी की आलेखमाला “शरीर ही ब्रह्मांड” के आलेख “अनाधिकार भोग है अतिक्रमण” को प्रबुद्ध पाठकों ने आज का यथार्थ बताया है।

जयपुरFeb 15, 2025 / 07:04 pm

Kamlesh Sharma

मन की रागात्मक प्रवृत्ति, बिना स्वामी की अनुमति के उसकी वस्तु के भोग की आदत को अतिक्रमण और अनाधिकार चेष्टा के रूप में निरूपित कर इससे बचने की सलाह देते पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी की आलेखमाला “शरीर ही ब्रह्मांड” के आलेख “अनाधिकार भोग है अतिक्रमण” को प्रबुद्ध पाठकों ने आज का यथार्थ बताया है। उनका कहना है कि लेख आवश्यकता से अधिक अर्जित करने के प्रति आगाह करता है। लेख एक दूसरे की रक्षा और सम्मान का संदेश भी देने वाला है। पाठकों की प्रतिक्रियाएं विस्तार से
लेख में बताया गया है कि आज व्यक्ति अपनी बढ़ती इच्छाओं के कारण दूसरों की संपत्ति पर अनाधिकार कब्जा कर रहा है। इससे भाई-भाई में झगड़े और घरों में फूट बढ़ रही है। प्रकृति सभी को समान रूप से देती है, लेकिन इंसान अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दूसरों को हानि पहुंचाने में संकोच नहीं करता। परिणामस्वरूप, दुनिया की अधिकांश संपत्ति कुछ गिने-चुने लोगों के पास है, जबकि अधिकांश लोग मुश्किल से अपना जीवन चला रहे हैं।
गया प्रसाद केसरवानी, बिजुरी, अनूपपुर
कोठारी का लेख वर्तमान स्थिति को बेहतर समझने में मदद करेगा। आज व्यक्ति सुखी जीवन जीने की कला भूलकर अधिक सुख-सुविधाओं के लिए अपराध कर रहा है। अपनी इच्छाओं को नियंत्रित न करने से अपराध बढ़ रहे हैं, लेकिन आवश्यकता से अधिक संग्रहण करने वाले लोग अक्सर कष्ट में रहते हैं।
प्राची सिंगरौरे, कॉलेज छात्रा, मंडला
आज के युग में जब व्यक्ति तृष्णा में उलझा हुआ है, ज्यादा की चाह उसे भटकाए हुए है, ऐसे में अपने मन को अवांछित यात्रा से रोक पाना बेहद कठिन है, लेकिन असाध्य नहीं है। गुलाब कोठारी का “अनाधिकार भोग है अतिक्रमण” लेख इस दिशा में बेहद अहम है।
डॉ. विवेक सक्सेना, नरसिंहपुर
किसी भी वस्तु माया, लोभ, क्रोध और भोग की अति जब हो जाती है तो वह अनाधिकार अतिक्रमण होकर एक दिन ज्वालामुखी होकर फूट जाती है। इस कारण कलह हो जाता है। मन ही सभी इन्द्रियों का नियंत्रक है किन्तु मन पर लगाम लगाना बड़ा ही कठिन कार्य है। पुरुष ब्रह्म व बीज है और स्त्री धरती जो पुरुष के बीज को मानव शरीर के रूप में बनाने में सहयोग करती है। काम , क्रोध लोभ तीनों का प्रवेशद्वार मन है। मन की स्वीकृति के बिना किया गया कृत्य ही अतिक्रमण कहलाता है, इसकी व्याख्या सरल शब्दों में की है।
रवि जैन, ज्योतिषाचार्य, रतलाम
काम, क्रोध और लोभ सब मन के कारक हैं। यही तीनों मिलकर व्यक्ति को पुण्य और पाप के मार्ग पर लेकर जाते हैं। जो मन पर काबू पा लेता है, वो ईश्वरीय शक्तियों के करीब होने लगता है। वहीं लोभ मोह के चलते जिसका मन भ्रमित हो जाता है, वो स्वयं के साथ पूरे परिवार को भी विनाश की ओर ले जाता है। इसलिए कहा जाता है कि अपनी ज्ञानेंद्रियों पर नियंत्रण रखना आना चाहिए, ताकि जीवन सुखद और शांति में व्यतीत हो। लेकिन, आज के युग में ऐसा संभव नहीं है। भौतिक सुख सुविधाओं की चमक लोगों को साधारण जीवन जीने ही नहीं देती है। हर दिन नया उत्पाद अपनी ओर आकर्षित करता है, जिसमें हजारों लोग तत्काल फंस जाते हैं। क्योंकि उनका मन उनके नियंत्रण में नहीं होता है। यही वजह है कि आज बाजारवाद में मार्केटिंग व्यक्ति के जीवन पर हावी होती जा रही है। यही तीज त्योहारों की खुशियां निर्धारित कर करने लगी है।
डॉ. सत्येन्द्र स्वरूप शास्त्री, आध्यात्मिक गुरु, जबलपुर
सांसारिक मनुष्य के जीवन में मन प्रधान है, मन ही हमें संचालित करता है और हमें भटकाता है। मनुष्य के मन में ही दूसरे की वस्तुओं के अतिक्रमण की अनधिकार चेष्टा उत्पन्न होती है। कोठारी ने अपने लेख के माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया है कि वास्तव में एक -दूसरे की रक्षा और सम्मान का भाव जहां होता है, वहां अतिक्रमण नहीं हो सकता। इसलिए मन को नियंत्रित कर समान भाव से सभी प्राणियों का मन एकाकार होने से एकात्मभाव का उदय होता है और समाज समरसता से भर जाता है। यह आलेख ज्ञानात्मक है और नारियों को सम्मान देने का सन्देश देता है।
बी. के. माला, वरिष्ठ अधिवक्ता, जिला न्यायालय, रीवा
आलेख में बताया गया है कि व्यक्ति का मन ही एकमात्र रास्ता होता है जिसके माध्यम से काम, क्रोध और लोभ तीनों प्रवेश करते हैं। अब यह बात व्यक्ति पर निर्भर करती है कि वह कौन से अच्छे कामों को अपने पास रखता है और कौन से कामों से दूर रहता है। कोई भी अगर अपने स्वामी या मालिक की अनुमति के बिना कोई काम करता है तो वह काम अतिक्रमण की श्रेणी में आता है। इस विषय को आलेख में विस्तृत रूप से समझाया गया है। अपने स्वामी की बात न मानना गलत है और लोगों को इससे बचना चाहिए।
डॉक्टर चंद्रशेखर गुप्ता, शिवपुरी
मनुष्य की इच्छाएं अनंत हैं, लेकिन संसाधन सीमित। इसी असमानता के कारण समाज में अतिक्रमण, शोषण और अनैतिक आचरण जन्म लेते हैं। किसी भी वस्तु या अधिकार का अनधिकृत भोग केवल भौतिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक रूप से भी हानिकारक है। हर वस्तु या संसाधन का कोई स्वामी होता है। बिना स्वीकृति के उसका उपभोग करना अन्याय है। यह न केवल व्यक्ति के अधिकारों का हनन करता है, बल्कि समाज में अविश्वास और अशांति भी फैलाता है। अतः इच्छाओं पर संयम आवश्यक है ताकि हम अनैतिकता से बच सकें। यदि हर व्यक्ति केवल अपने अधिकार की सीमा में रहे और दूसरों के अधिकारों का सम्मान करे, तो समाज में सौहार्द और संतुलन बना रहेगा।
बीएल मालवीय, छिंदवाड़ा
अति सर्वत्र वर्जयेत’। हमारे शास्त्रों में भी संयम को महत्त्व दिया गया है। दाम्पत्य जीवन में भी संयम से काम लेना चाहिए। स्त्री को पत्नी के रूप में पा कर उसे असंयमित भोग की वस्तु मान लेना गलत है। लेख में सही लिखा है कि अनाधिकार भोग अतिक्रमण के समान है। अतिक्रमण से बचना चाहिए क्योंकि संयम से ही परस्पर संबंध मधुर रहते हैं।
डीएल सोनी, सेवानिवृत स्टेनो, सहकारी बैंक, तिली, सागर
गुलाब कोठारी के लेख को उनकी दार्शनिक और सामाजिक दृष्टि के संदर्भ में देखा जा सकता है। वे अपने लेखन में आमतौर पर भारतीय संस्कृति, नैतिक मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था के गहरे विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। यह लेख व्यक्ति और समाज के स्तर पर ‘अनाधिकार भोग’ की धारणा को स्पष्ट करता है। अनाधिकार भोग का अर्थ है किसी वस्तु, पद, या संसाधन का उपयोग बिना उचित अधिकार या योग्यता के करना, जो नैतिक और कानूनी रूप से अतिक्रमण की श्रेणी में आता है। कोठारी के लेखन में वेद, उपनिषद और भारतीय दार्शनिक दृष्टिकोण का उल्लेख होता है।
पुजारी प्रदीप गुरु, महाकाल मंदिर, उज्जैन
किसी भी वस्तु का आवश्यकता से अधिक उपभोग उचित नहीं है। ये बात वर्तमान परिदृश्य में कारगर साबित नहीं होती दिखती। इंसान के मन पर उसका नियंत्रण हट चुका है और यही वजह है कि उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है। उसकी जरूरतें भी एक के बाद एक बढ़ रही हैं। कोठारी ने इस लेख के जरिए व्यक्ति के उपभोग के बढ़ते दायरों को अच्छे से समझाने की कोशिश की है।
गौरव उपाध्याय, ज्योतिषाचार्य, ग्वालियर
लेख में मनुष्य स्वभाव के संबंध में बताया गया है। इसमें गीता के माध्यम से समझाया गया है कि काम, क्रोध और लोभ तीनों नरक के द्वार हैं। मनुष्य स्वभाव के बारे में भगवद गीता के श्लोक के माध्यम से समझाया गया है। मनुष्य में लालच की भावना जो रक्त में आ चुकी है, उस संबंध में भी अच्छी सीख लेख में है।
महेंद्र राठौर, समाजसेवी, बुरहानपुर
कोठारी का यह लेख बहुत ही सारगर्भित है। उन्होंने सही कहा है कि सृष्टि में भोग का स्थान ही नहीं है। हम अपने सुख के लिए किसी को खतरे में डालते हैं। ब्रह्म पुरुष बीज तत्त्व युक्त है, बीज तत्त्व को गंभीरता से समझने की जरूरत है। निश्चित तौर पर यह लेख समाज को नई दिशा देगा। इस पर अमल करना आवश्यक है। 
डॉ गुरुदत्त मिश्र, मौसम विशेषज्ञ, भोपाल
लेख में वर्तमान समय में जो भोग की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, उसे लेकर जागरूक किया गया है। आजकल सभी आवश्यकता से अधिक अर्जित करने में लगे हैं, लेकिन इसके कारण जो दुष्परिणाम हो रहे हैं, उस ओर किसी का ध्यान नहीं है। इस लेख के माध्यम से बहुत अच्छी और विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। इस पर चिंतन, मनन हो तो समाज में बदलाव आ सकता है।
अशोक पांडे, मप्र कर्मचारी मंच,भोपाल
लेख में अनावश्यक उपभोग पर जो व्याख्या की है, वह सामयिक व प्रासंगिक है। हमारे यहां तो हमेशा कहा गया है अति हमेशा ही गलत होती है। सृष्टि की रचना में अतिक्रमण की व्यवस्था नहीं है, लेकिन मनुष्य ने अपनी सुविधा के हिसाब से सारी व्यवस्थाएं तय कर ली हैं। ईश्वर ने जो वस्तु जिसके लिए बनाई है, उसे ही भोग करना चाहिए।
अशोक तोमर अटेर,
जिला पर्यटन मित्र एवं सदस्य जिला पुरातत्व पर्यटन परिषद, भिण्ड
गुलाब कोठारी के इस लेख में मनुष्य, ब्रह्म और इंद्रियों की क्रिया से जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को सुव्यस्थित समझाया गया है। कृष्ण कहते हैं काम, क्रोध और लोभ तीनों ही नरक के द्वार है, लेकिन आज का मनुष्य तीनों पर लगाम नहीं लगा पा रहा है। सृष्टि में नर नारी ही ऐसे प्राणी हैं जो ब्रह्म और प्रकृति के अनुरूप ढल कर जीवन को सफल बना सकते हैं, क्योंकि पुरुष और प्रकृति मिलकर सृष्टि चलाते है, वहीं दूसरी ओर स्त्री ब्रह्म द्वारा पैदा की गई शक्ति है। इसके बावजूद इस ज्ञान से परे मनुष्य अतिक्रमण और आक्रमण कर दूसरों का हिस्सा लूटकर खाना चाहता है। अपने सुख की लिए किसी को भी कष्ट में डाल देता है। इसका समाधान लेख में है कि स्त्री और पुरुष दोनों को समझना होगा कि उन्हें भगवान ने इस धरती पर क्यों भेजा है। अगर इस भाव पर चिंतन, मनन कर सोचा जाए तो प्रकृति की हर जटिल समस्या का समाधान मिल जाएगा।
पंडित गुलशन अग्रवाल, इंदौर

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