2025 का महाकुंभ 144 वर्ष का विशेष आयोजन है। बहुत ही बड़े पैमाने पर सब कुछ आयोजित किया जा रहा है। यूपी सरकार के दावे हैं कि भीड़ से लेकर हर चीज को कंट्रोल करने के लिए लेटेस्ट टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया गया है। पार्किंग, डाइवर्जन, बैरिकेडिंग, पुलिस वगैरह सब चाक चौबंद होने के ऐलान हैं। यह भी एक वजह है कि असंख्य लोगों के कदम कुंभ स्नान के लिए उठे। मन में आस्था और मां गंगा पर अटल विश्वास का दीपक लेकर करोड़ों लोग देश के कोने-कोने से कुंभ के लिए चल दिए। लोगों को राह मिलती गई और हौसला बढ़ता गया।
जिस तरह इस कुंभ को ‘न भूतो न भविष्यत्’ करार दिया, उसके चलते अधिक लोग कुंभ पहुंचे। संगम नोज तक जाने के लिए एक रास्ता व वापसी के लिए तीन रास्ते- अक्षयवट मार्ग, महावीर मार्ग, जगदीश रैंप तय किए गए। इमरजेंसी के लिए ग्रीन कॉरिडोर भी बनाए गए हैं। पर बड़े दावों के बीच बैरिकेडिंग व गंगा के तट पर पसरी रेत पर रात गुजारने को लोग मजबूर हुए। पांटून के पुलों को बंद किया गया। जिस तरह वीआइपी सुरक्षा के इंतजाम थे, उसी तरह के इंतजाम जनता के लिए न कभी होते हैं और न इस बार थे। फिर भी सवाल बड़ा है कि जब भीड़ कंट्रोल में तनिक भी संदेह था तो क्यों इतने लोगों को संगम की तरफ बढऩे दिया गया? घाटों को लेकर सरकार ने होल्डिंग एरिया को ठीक से व्यवस्थित क्यों नहीं किया?
जो अपील दुर्घटना के बाद शुरू हुई, वो पहले से क्यों नहीं की गई कि संगम नोज जाने की जगह जो भी घाट आपके करीब है, वहीं अमृत स्नान कर लें। बाद में प्रचार किया गया कि तीन दिन में कभी भी स्नान करेंगे तो मौनी अमावस्या का फल मिलेगा। यह प्रचार पहले भी हो सकता था। इसके साथ ही श्रद्धालुओं की मनोवृत्ति भी कम जिम्मेदार नहीं है। आप जब संगम नोज पर हैं तो जल्दी किस बात की? बैरिकेड तोडक़र क्यों भागना? जब संत शाही स्नान बाद में कर सकते हैं तो लोग क्यों नहीं सब्र कर सकते? आमतौर पर ऐसे धार्मिक आयोजन में हम अपने परिवार के साथ जाते हैं। महिलाएं व बच्चे भीड़ का अनुभव नहीं रखते हैं। नतीजतन, वे किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में मनोवैज्ञानिक रूप से हतोत्साहित, उदास व चिंतित हो उठते हैं। भीड़ में प्रबल आवेग होता है। सभी लोगों का आवेग एक साथ काम कर रहा होता है। जैसे-जैसे भीड़ बढ़ती जाती है, लोग भीड़ में खो जाते हैं। अपने बारे में नहीं सोचते हैं। यही कारण है कि अनैच्छिक रूप से व्यक्ति भीड़ के अनुरूप काम करता है। भीड़ में बुद्धि, विवेक, विचार काम नहीं करता। केवल आवेग का उफान दिखता है।
सवाल सरकार व श्रद्धालुओं दोनों से बहुत हैं। जिम्मेदार दोनों हैं। लेकिन जवाब कोई नहीं है क्योंकि जवाब होते तो किसी भी भीड़ वाली जगह पर हादसे न होते, हम पुराने हादसों से कुछ नहीं सीखते। मौनी अमावस्या पर जो हुआ उससे बहुत ही गंभीर सवाल उठ खड़े होते हैं। यह कह कर जिम्मेदारी से नहीं बचा जा सकता कि जब करोड़ों लोग जुटेंगे तो भगदड़ तो मचेगी ही। एक भी इंसान की मौत मेला के पूरे इंतजामी सिस्टम को चुनौती देता है। हादसे के शिकार लोग तो सरकारी इंतजामों पर भरोसा करके यहां आए थे। भगदड़ आगे भी नहीं होगी इसकी क्या गारंटी है? क्या कोई सिर्फ शोक संवेदना से भी आगे सोचेगा? क्या हमारा तंत्र जिंदगी का मोल कभी समझ पाएगा? दूसरी ओर, इस पर राजनीति भी शुरू हो गई है, लेकिन सबको समझने की जरूरत है कि यह समय राजनीति का नहीं बल्कि ऐसी दुर्घटनाओं से सबक लेने का है।