दोपहर करीब 12:30 बजे जब खाजूवाला पहुंचा तो माहौल बिल्कुल अलग था। बाजारों में दुकानों से ज्यादा बातचीत में सीमा की गर्मी थी। चाय की दुकानों पर बिस्किट और कॉफी के साथ पाकिस्तान को सबक सिखाने की रणनीतियां बन रहीं थीं।
सीमा के साए में, सड़कों पर शांति, दिलों में ज्वाला
साथी पत्रकार रितेश यादव के साथ जब 20 किलोमीटर दूर सीमा की ओर बढ़े, तो हर गांव में कुछ साझा नजर आया, एकजुटता, जोश और अडिग विश्वास। गांव चक एक बीएम ए में लोग तपती धूप में भी पेड़ों की छांव में चारपाई पर बैठे थे, लेकिन आंखें चौकस थीं, बातों में सिर्फ सेना का शौर्य था। बगल के गांव में बच्चे निडर खेल रहे थे। महिलाओं की आंखों में डर नहीं, बल्कि गर्व की चमक थी। 1971 और करगिल युद्ध की साक्षी कलावती मेघवाल से बात हुई, तो उन्होंने कहा, “पहली बार गांव खाली नहीं कराए गए। हमें गर्व है कि हम यहीं हैं, सेना के साथ।” बंकर, बंदूकें और भरोसा
वन विभाग की जमीन पर बने बंकर जैसे चुपचाप खड़े गवाह थे उस तैयारी के, जो कभी भी ज़रूरत बन सकती थीं। दुकानों का अभाव था, लेकिन मन में कोई डर नहीं। जवानों की मौजूदगी आमजन के हौसले को और मजबूती दे रही थी।
वापसी की राह और सिजफायर की खामोशी
लौटते वक्त, सीजफायर की घोषणा हो चुकी थी। बस स्टैंड पर इंतजार करते हुए लोगों की बातचीत अब शांति बनाम निर्णायक युद्ध पर थी। कोई कह रहा था “सही किया”, तो कोई कह रहा था, “इस बार खत्म कर देना था। बेहद रोमांचकारी अनुभव रहा। घर से चला था एक पत्रकार की तरह, लेकिन सीमा पर पहुंचते-पहुंचते महसूस हुआ कि यहां खबर नहीं, जुनून लिखना पड़ता है। उस दिन सिर्फ रिपोर्टिंग नहीं की, बल्कि देशभक्ति की धड़कन को महसूस किया और संस्थान को वो खबर दी जो सरहद से नहीं, सीने से निकली थी।