इतिहासकारों के अनुसार अमरकोट (अब पाकिस्तान) निवासी महिन्द्रा को मूमल की अनुपम सुंदरता और मोहक व्यक्तित्व ने इस कदर बांध लिया कि वह हर रात सौ कोस की यात्रा ऊंट की पीठ पर तय कर लौद्रवा पहुंचता। न तपती रेत की परवाह और न ही रात की थकान। बस एक ध्येय – मूमल के दर्शन। उधर, मूमल भी अपनी मेड़ी में प्रतीक्षा करती और प्रेम के इन पलों में समय थम जाता।
लौद्रवा की मूमल की मेड़ी केवल एक खंडहर नहीं, बल्कि प्रेम की अनंत आस्था का प्रतीक है। यहां आने वाला हर व्यक्ति इस अमर गाथा में खो जाता है और महसूस करता है कि प्रेम कभी समाप्त नहीं होता। वह सदियों तक जीवित रहता है, रेत के हर कण में….हवाओं की हर सरगम में।
एक गलत फहमी और प्रेम की पीड़ा
कहते हैं हर प्रेम कहानी का अंत सुखद नहीं होता और मूमल-महिन्द्रा की कथा भी एक दु:खद मोड़ पर आकर ठहर गई। एक रात, जब महिन्द्रा लौद्रवा पहुंचा तो उसने मूमल को पुरुष वेशधारी अपनी बहन सूमल के साथ देखा। इस दृश्य ने संदेह का बीज बो दिया। महिन्द्रा बिना कुछ कहे लौट गया…हमेशा के लिए। जब मूमल को इस गलतफहमी का अहसास हुआ वह तो विरह की अग्नि में जल उठी। उधर, महिन्द्रा भी इस प्रेम आघात से विक्षिप्त हो गया। जिस प्रेम ने मरुभूमि को महका दिया था, वह एक क्षण में बिखर गया। मूमल-महिन्द्रा की यह प्रेमगाथा केवल एक लोककथा नहीं, बल्कि पश्चिमी राजस्थान की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है। राजस्थानी, सिंधी और गुजराती साहित्य में यह कथा अलग-अलग रूपों में दर्ज है। मरु महोत्सव में आज भी मूमल-महिन्द्रा की जोड़ी प्रतियोगिताओं का हिस्सा बनती है।
काक नदी के किनारे प्रेम का प्रतीक
कहा जाता है कि सैकड़ों साल पहले जब जैसलमेर क्षेत्र की भूमि काक नदी के प्रवाह से सिंचित थी, तब लौद्रवा प्रेम का एक अद्भुत केंद्र बना था। यहां स्थित मूमल की मेड़ी उस युग की साक्षी है, जब यह स्थान प्रेमालाप का स्वर्णिम द्वार था। इस स्थल का बखान राजस्थानी लोकगीतों, सिंधी और गुजराती साहित्य में भी हुआ है, जो इसे लोकसंस्कृति का अभिन्न हिस्सा बनाता है। मूमल की मेड़ी भले ही अब खंडहर में तब्दील हो चुकी है, लेकिन इसकी टूटी दीवारों में प्रेम के पदविहन आज भी जीवित हैं। यहां आने वाले पर्यटक जब इन भग्नावशेषों को देखते हैं तो कल्पना में वह दौर जीवंत हो उठता है-जब धोरों के सन्नाटे में प्रेम के मधुर संवाद गूंजते थे और हर रात महिन्द्रा का ऊंट प्रेम की यात्रा पर निकलता था।