वे स्वयं प्रकाश-पुंज बनकर दूसरों को देखने, समझने और आत्मविश्वास के साथ कार्य करने में सहायता करते हैं। ज्ञान, अग्नि की भांति, भ्रम को दूर कर निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है। एक लीडर को इसी प्रकाश का स्रोत बनना चाहिए- निर्मल, केंद्रित और ज्ञान का प्रदाता। 2. परिवर्तन की शक्ति : अग्नि कभी भी वस्तुओं को जस-का-तस नहीं छोड़ती, यह उन्हें रूपांतरित करती है। कच्चा भोजन पककर पोषण में बदल जाता है, अयस्क से स्वर्ण शुद्ध होकर निकलता है, शीतलता ऊष्मा में परिवर्तित होती है। इसी प्रकार, लीडर को भी परिवर्तन का वाहक बनना चाहिए।
यह विध्वंस का नहीं, बल्कि सर्वोच्च उत्कर्ष का प्रतीक है- प्रक्रियाओं, लोगों और उद्देश्यों का उत्थान करने का प्रतीक। लीडर के भीतर जलने वाली अग्नि क्रोध की नहीं, बल्कि तप की होनी चाहिए- संयमित, केंद्रित ऊर्जा, जो उच्चतम भलाई के लिए समर्पित हो। 3. संयमित ऊर्जा और आत्म-नियंत्रण : अनियंत्रित अग्नि विनाशकारी हो सकती है। लेकिन नियंत्रित अग्नि दीपक की लौ की भांति प्रकाश, दिशा और ऊष्मा प्रदान करती है। सच्चा नेतृत्व भी ऐसा ही होता है। स्वयं की शक्ति को पहचाने बिना शक्ति का उपयोग केवल प्रभुत्व के लिए किया जा सकता है, लेकिन आत्म-नियंत्रण के साथ यही शक्ति सेवा का रूप ले पाती है।
एक लीडर को अपने जुनून को सही दिशा में मोडऩा आना चाहिए, अपनी तीव्रता को संतुलित रखना चाहिए और उकसावे के बीच भी स्थिर बने रहना चाहिए। नियंत्रित अग्नि दीपक की लौ बनती है- अनियंत्रित अग्नि विनाश का कारण। 4. प्रकाश देना, न कि भस्म करना : अग्नि केवल देती है। यह प्रकाश और ऊष्मा प्रदान करती है, बिना किसी अपेक्षा के। लीडर को भी यही सिद्धांत अपनाना चाहिए- वे प्रेरणा, साहस और आशा का स्रोत बनें, न कि दूसरों को जलाकर अपना वर्चस्व स्थापित करें।
यज्ञ में प्रज्वलित अग्नि मांगती नहीं, बल्कि अर्पण स्वीकार कर आशीर्वाद के रूप में लौटा देती है। लीडरशिप भी इसी सिद्धांत पर आधारित होनी चाहिए- निष्काम कर्म पर आधारित- बिना फल की आसक्ति के कार्य करना।