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आरक्षण के बावजूद महिलाओं की भागीदारी क्यों नहीं हो पा रही?

रिपोर्ट के मुताबिक महिला पंचायत प्रतिनिधियों के कामकाज में उनके पति या पुरुष रिश्तेदार हस्तक्षेप कर रहे हैं। इस कारण आरक्षण के बावजूद भी महिलाओं की लोकतंत्र में वास्तविक भागीदारी नहीं हो पा रही है।

जयपुरMar 06, 2025 / 08:10 pm

Neeru Yadav

ऋतु सारस्वत, समाजशास्त्री एवं स्तम्भकार

पंचायतों में निर्वाचन के बाद भी महिला प्रतिनिधियों को हाशिए पर धकेलकर छद्म रूप से नेतृत्व कर रहे प्रधान पति या सरपंच पतियों पर केंद्र सरकार ने नकेल कसने की ठान ली है। 4 मार्च को आरंभ हुए दो दिवसीय कार्यक्रम में ‘सशक्त पंचायत नेत्री’ अभियान की औपचारिक घोषणा हुई। उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय के आदेश की अनुपालन में पंचायती राज मंत्रालय ने जो समिति बनाई थी उसने हाल ही रिपोर्ट सौंपी है। यह अध्ययन केरल सरकार के गरीबी उन्मूलन एवं महिला सशक्तीकरण कार्यक्रम कुदुम्बश्री तथा मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज संस्थान (एनआईआरडी एंड पीआर) द्वारा बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, झारखंड और कर्नाटक सहित 18 राज्यों में किया गया।
रिपोर्ट के मुताबिक महिला पंचायत प्रतिनिधियों के कामकाज में उनके पति या पुरुष रिश्तेदार हस्तक्षेप कर रहे हैं। इस कारण आरक्षण के बावजूद भी महिलाओं की लोकतंत्र में वास्तविक भागीदारी नहीं हो पा रही है। रिपोर्ट में यह भी सिफारिश की गई है कि इन महिलाओं में नेतृत्व कौशल को मजबूत करना होगा, साथ ही उनके संशय को दूर करते हुए सरकारी तंत्र को उनके सहयोग में लगना होगा। यह निर्विवाद है कि विश्व के किसी भी हिस्से में राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं की यात्रा कभी भी सहज नहीं रही है, चाहे वह राजनीति का प्रथम पायदान हो या फिर उच्चतम स्तर। यदि महिला राजनेता को उसके कार्यों से नहीं अपितु उसके ‘स्त्री’ होने से आंका जाता है तो यह लैंगिक पूर्वाग्रह उसके लिए राजनीति में अपनी पहचान बनाने की सबसे बड़ी बाधा है। निश्चित ही आज भी यह विचारधारा अपनी जड़ें बड़ी ही गहराई से जमाए हुए है कि महिलाओं के लिए राजनीति का क्षेत्र दूर की कौड़ी है। अमूमन नेतृत्व पदों को पुरुषों का क्षेत्राधिकार मानने वाली सोच सिर्फ पुरुषों तक सीमित नहीं है यह सोच स्त्रियों में भी व्याप्त है। ‘आंतरिक स्त्री द्वेष’ जिसे अंग्रेजी भाषा में ‘इंटरनलाइज्ड मिसोजिनी’ कहा जाता है, वह भाव है जहां महिलाएं स्वयं के बारे में नकारात्मक सोचती हैं और स्वयं को ही नहीं अपितु दूसरी महिलाओं को भी पुरुषों की अपेक्षाकृत कमतर आंकती हैं। यही कारण है कि बिना आरक्षण के भारत ही नहीं, विश्व के किसी भी देश में महिलाओं के लिए सत्ता पर काबिज होना मुश्किल भरा कार्य है।
बात जहां तक पंचायत में महिलाओं की सत्ता की है तो उनके लिए अनेक चुनौतियां मुंह बाए खड़ी रहती हैं। हरियाणा में हुए एक अध्ययन के मुताबिक निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों को अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते समय कई सामाजिक सांस्कृतिक अवरोधों से जूझना पड़ता है। ‘वाट विमेन नीड टू सक्सीड इन पंचायत इलेक्शन’ 2023 में इंडियन डवलपमेंट रिव्यू का शोध बतलाता है कि लैंगिक आधार पर भेदभाव के चलते अधिकतर निर्वाचित महिला प्रतिनिधि स्वयं को अलग-अलग महसूस करती हैं।
पंचायत सेक्रेट्री और दूसरे महत्त्वपूर्ण पदों जो कि प्रशासनिक कार्यों से जुड़े हुए होते हैं, उन पर अधिकांशत: पुरुष प्रतिनिधि एवं अधिकारी काबिज होते हैं जिसके चलते बिना किसी राजनीतिक अनुभव के पहली बार चुनाव जीतने वाली ज्यादातर निर्वाचित महिला प्रतिनिधि अधिकारियों से तारतम्य स्थापित नहीं कर पातीं। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी क्षेत्र में अनुभव की कमी व्यक्ति के आत्मविश्वास का हनन करती है और जब बात राजनीति जैसे क्षेत्र की हो तो वहां सत्ता लोलुप व्यक्तियों को अनुभव विहीन व्यक्ति के कार्य क्षेत्र में घुसपैठ करने का सहजता से मौका मिल जाता है। जितना आवश्यक महिलाओं का नेतृत्व पदों पर आसीन होना है, उतना ही जरूरी उनका उस क्षेत्र के लिए प्रशिक्षित होना भी है। हमें यह समझना होगा कि शासन से जुड़े ढांचे में महिलाओं की मौजूदगी नीति निर्धारण के लिए बेहद अहम है।

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