46% जनसंख्या को आजीविका प्रदान करने वाला कृषि क्षेत्र, जो सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में केवल 18.2% का योगदान देता है, कम उत्पादकता, बिखरे हुए भूमि-स्वामित्व, जल की कमी, उच्च लागत और कटाई के पूर्व के नुकसान जैसी अनगिनत चुनौतियों का सामना कर रहा है। जलवायु परिवर्तन इन समस्याओं को और गंभीर बना देता है, जिससे जल उपलब्धता, बढ़ते तापमान, कीट भार, और मृदा क्षरण प्रभावित होते हैं। हमारे देश में कृषि क्षेत्र वर्षा पर अत्यधिक निर्भर है; लगभग 60% बोया हुआ क्षेत्र आज भी वर्षा-आधारित परिस्थितियों पर निर्भर है। पिछले पांच वर्षों में, मध्य और दक्षिणी भारत में सामान्य से अधिक वर्षा हुई है, जबकि अन्य क्षेत्रों में वर्षा की कमी रही। यह परिवर्तनशीलता फसल चयन, उसके पैटर्न और जल एवं मृदा प्रबंधन को प्रभावित करती है।
भारत की कृषि भूमि — जो कि खाद्य प्रणाली की रीढ़ है — इन चुनौतियों से और अधिक प्रभावित हो रही है। इसे दोहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है— मात्रात्मक कमी और गुणात्मक क्षरण। छोटे किसानों को इसका सबसे अधिक भार महसूस होता है (68.45% किसान एक हेक्टेयर से कम भूमि वाले है), और बढ़ता शहरीकरण कृषि योग्य भूमि को तीव्रता से कम कर रहा है। 2021 में, कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता प्रति व्यक्ति के लिए मात्र 0.12 हेक्टेयर थी (विश्व बैंक)। ये चुनौतियां किसानों की उत्पादन को यंत्रीकृत करने या प्रौद्योगिकी प्रगति अपनाने की क्षमता को बाधित करती हैं, क्योंकि इनपुट की उच्च सीमांत लागत के मुकाबले सीमांत लाभ कम होता है। जलवायु परिवर्तन इस समस्या को और जटिल बना देता है, जिससे फसल उत्पादन में उतार-चढ़ाव और घटते लाभ होते हैं। इसलिए, कृषि में जलवायु प्रतिरोधकता बनाना और भूमि उत्पादकता को बढ़ावा देना अनिवार्य है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने 100 सूखा- और ताप- प्रतिरोधी फसल बीज का आविष्कार किया है। हालांकि, इनका बड़े पैमाने पर अपनाना अभी कठिन है। उदाहरण के लिए, जबकि 75% गेहूं की खेती जलवायु-प्रतिरोधक बीजों का उपयोग करती है, चावल के मामले में ये आंकड़ा 20% से कम है। आगामी बजट को इन बीजों को सुलभ और किफायती बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जिसमें कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) द्वारा इसके प्रदर्शन के साथ-साथ पारंपरिक बीजों से संक्रमण में सहायता प्रदान की जानी चाहिए।
इसके अतिरिक्त, फसल विविधीकरण रणनीति को जलवायु-प्रतिरोधक बीजों के साथ पूरक बनाना होगा ताकि एकल कृषि से जुड़े जोखिमों को कम किया जा सके और जलवायु संवेदनशीलता का समाधान किया जा सके। खाद्यान्न भारत के कृषि उत्पादन का 60% हिस्सा हैं, लेकिन गेहूं और चावल जैसे मुख्य अनाजों से दालों, तिलहन और बाजरे की ओर परिवर्तन करने से पोषण संबंधी सुरक्षा में सुधार होगा और पानी एवं उर्वरकों पर निर्भरता कम होगी। हालांकि, इस बदलाव के लिए नीतिगत प्रयास सीमित रहे हैं। उदाहरण के लिए, दाल उत्पादन के क्षेत्र में संकेन्द्रित उत्पादन, सीमित MSP और कम कीमतों को लेकर काफी चुनौतियों मौजूद है। नतीजतन, भारत अपनी वार्षिक दाल खपत का 15% आयात करता है। 2027 तक दालों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए, बजट 2025-26 में MSP खरीद सुनिश्चित करने, मूल्य कमी भुगतानों और चावल उत्पादन के बंजर क्षेत्रों में खेती का विस्तार करने जैसे उपायों को शामिल करना चाहिए।
इसी तरह, हरित क्रांति के बाद से बाजरे की खेती में गिरावट आई है। बाजरा सूखा प्रतिरोधी है; इसमें कम पानी की आवश्यकता होती है, और यह खराब मिट्टी में भी पनप सकता है, जो इसे उच्च जलवायु प्रतिरोधकता प्रदान करता है। इसकी क्षमता को पहचानते हुए, सरकार ने 2023 को बाजरा का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया, लेकिन किसानों को उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करना अभी भी महत्वपूर्ण है। बाजरा उत्पादन को चावल और गेहूं की तुलना में अधिक लाभकारी बनाना चाहिए। इसलिए, बाजरे की खपत को बढ़ावा देने के लिए, आगामी बजट को बाजरे की खरीद पर सुनिश्चित MSP, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) में उसको एकीकृत करने, और POSHAN अभियान और मध्याह्न भोजन योजना (MDMS) जैसी योजनाओं के तहत शामिल करने के लिए प्रावधान करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त, भारत में उभरती डिजिटल क्रांति कृषि को बदलने की अपार क्षमता रखती है। सरकार ने पहले ही फसल क्षति मूल्यांकन और दावा निपटान में तेजी लाने के लिए नवाचार और प्रौद्योगिकी कोष (FIAT), और महिलाओं के स्वयं सहायता समूह (SHG) को उर्वरक और कीटनाशक के प्रयोग के लिए ड्रोन किराए पर लेने के लिए नमो ड्रोन दीदी योजना जैसे कई पहल शुरू किए हैं। इन प्रयासों को जारी रखते हुए, बजट को सटीक खेती, स्थानीय भाषाओं में AI आधारित कृषि सलाहकार सेवाओं, और किसान पहचान पत्र (KPP) योजना के सटीक सेवा वितरण के लिए किसानों के एकीकृत डेटाबेस के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
आपूर्ति पक्ष पर, कटाई के बाद के नुकसान भारतीय कृषि क्षेत्र में एक प्रमुख समस्या बने हुए हैं। चावल, गेहूं और अन्य फसलों के शीर्ष उत्पादकों में से एक होने के बावजूद, कटाई के बाद की अपर्याप्त अवसंरचना के कारण भारी नुकसान और कीमतों में अस्थिरता होती है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय के अनुसार, कटाई के बाद के नुकसान, विशेष रूप से टमाटर, प्याज और आलू जैसी खराब होने वाली फसलों के लिए, प्रति वर्ष ₹1,52,790 करोड़ तक हैं। इस नुकसान को रोकना उत्पादकता बढ़ाने जितना ही महत्वपूर्ण है।
सरकार के अभी के प्रयासों, जैसे कि फसलों के परिवहन और भंडारण को बढ़ावा देना आवश्यक है। बजट 2025-26 को कृषि अवसंरचना निधि (AIF) और एकीकृत बागवानी विकास मिशन (MIDH) के तहत माइक्रो-कोल्ड स्टोरेज और ग्रेडिंग यूनिट की स्थापना के लिए अधिक धन निर्धारित करना चाहिए, जिससे आपूर्ति नियमित हो सके और कीमतों में स्थिरता आ सके।
नुकसान रोकथाम के अलावा, कटाई के बाद की अवसंरचना में अक्षमताओं को दूर करना भी भारत की निर्यात क्षमताओं को बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण है। वैश्विक कृषि उत्पादन में 11% का योगदान देने के बावजूद, वैश्विक कृषि निर्यात में भारत की हिस्सेदारी केवल 2-3% है। मूल्य श्रृंखला दृष्टिकोण अपनाकर, खपत के हॉटस्पॉट और प्रमुख फसलों की मूल्य शृंखलाओं पर ध्यान केंद्रित करने से वैश्विक बाजार की प्राथमिकताओं के साथ संरेखित हुआ जा सकता है। इसके लिए इनपुट आपूर्ति और अवसंरचना से लेकर प्रसंस्करण, लॉजिस्टिक्स और बाजार पहुंचने तक की पूरी मूल्य श्रृंखला में लक्षित हस्तक्षेप की आवश्यकता है। कृषि निर्यात बढ़ाने के लिए, बजट को चुनिंदा क्लस्टरों को संचालित करने, इस दृष्टिकोण को उच्च-मूल्य वाले कृषि उत्पादों तक विस्तारित करने, और किसान उत्पादक संगठनों (FPO) को इन क्लस्टरों से जोड़ने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
आज, भारत का कृषि क्षेत्र एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है, जहां इसे जलवायु परिवर्तन से रूढ़ि-गत भेद्यता के साथ-साथ प्रौद्योगिकी और बाजार के विस्तार से उत्पन्न हुई नई संभावनाओं का सामना करना पड़ रहा है। आगामी बजट को क्रमिक परिवर्तनों के पार जाकर एक मूलभूत रूपांतरण अपनाना होगा ताकि कृषि क्षेत्र में प्रतिरोधकता सुनिश्चित की जा सके। इसमें जलवायु-प्रतिरोधक प्रथाओं को प्राथमिकता देना, कटाई के बाद की अवसंरचना को बढ़ाना, और जोखिम कम करने के साथ-साथ उत्पादकता और पोषण संबंधी सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए फसल पोर्टफोलियो में विविधता लाना भी शामिल है। डिजिटल प्रौद्योगिकी का लाभ उठाते हुए मूल्य शृंखला विकसित करने से कृषि क्षेत्र में अक्षमताओं को दूर किया जा सकता है और भारत को विश्व में कृषि के उच्चतम प्रतिस्पर्धी के रूप में स्थापित किया जा सकता है। कृषि क्षेत्र में असुरक्षा से आत्मनिर्भरता तक की भारत की यात्रा अभिनव नीतिगत उपायों, उपयुक्त बजट समर्थन, और स्थिरता के लिए दीर्घकालिक प्रतिबद्धता पर निर्भर करती है।