scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड – मां भी माया का प्रतिबिंब | Patrika Editor In Chief Gulab Kothari Special Article On 12th April Sharir Hi Brahmand Mother Is Also Reflection Of Maya | Patrika News
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शरीर ही ब्रह्माण्ड – मां भी माया का प्रतिबिंब

स्त्री शीतल-सौय होकर पुरुष की आयु बढ़ाती है, पुरुषाग्नि में आहुत रहकर। आग्नेय स्त्री के पति की आयु पर प्रभाव बदलता है। मन दोनों का चन्द्रमा से प्रभावित होता है। आग्नेय-सौय स्त्रियों का मानसिक रूप भिन्न होता है।

जयपुरApr 12, 2025 / 08:21 am

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी

स्त्री-पुरुष की जननी भी है, रचनाकार भी है। गर्भ से लेकर, शिशु-किशोर-युवा पति-गृहस्थ-वानप्रस्थ-संन्यास। स्त्री के जीवन काल का यही मुय ‘प्रोजेक्ट’ है। ब्रह्म ने सृष्टि में माया को पैदा इसीलिए किया। पहले स्वयं स्त्रैण बने, पति का निर्माण, पिता बनाए उसको, पिता को पुत्र में उतारे-प्रतिनिधि रूप में। वंशज के रूप में। संस्कारित करे-गर्भ में भी-बाद में भी। पिता-पुत्र दोनों को तैयार करे- पति को मोक्षमार्गी और पुत्र को गृहस्थी के लिए। पुत्री को स्त्रैण रूप में अच्छी पत्नी-मां बने वैसा तैयार करे। देश में कहावत है कि अच्छी पत्नी प्राप्त करने के लिए पुरुष को पुण्य कमाना पड़ता है। वह पुरुष के सौम्य* भाग का निर्माण करती है। पुरुष की दीर्घायु के लिए प्रार्थना करती है, ताकि वह भी उतने काल तक सुहागन रह सके। चूंकि उसके सारे अनुष्ठान-पूजा-कर्म पति की अभ्युदय प्राप्ति से जुडे़ हैं और स्वयं उसके मूल प्राण भी पति के हृदय में ही प्रतिष्ठित रहते हैं, अत: प्राणों की अभिवृद्धि निश्चित है।
दाम्पत्य की आयु सात जन्म होती है। कन्या के आत्मा में इसका स्फुरण* होता रहता है। प्रत्येक पूजा में यह स्फुरण भी बलवान होता जाता है। उसे आभास होता जाता है क्योंकि आत्मा से आत्मा का सूत्र बन्धन पहले से हो चुका होता है। पेट में तो उसे लक्ष्य भी याद रहता है। स्त्री शीतल-सौम्य होकर पुरुष की आयु बढ़ाती है, पुरुषाग्नि में आहुत रहकर। आग्नेय स्त्री के पति की आयु पर प्रभाव बदलता है। मन दोनों का चन्द्रमा से प्रभावित होता है। आग्नेय-सौम्य स्त्रियों का मानसिक रूप भिन्न होता है। जैसे अन्न सौम्य है- चन्द्रमा है, मंगल उष्ण है, पाचन करता है। स्त्री पुरुष का अन्न है। अपने कर्मों के रस से सींचती भी है, पुरुष से रस ग्रहण भी करती है। कहते हैं कि पत्नी दिन में आवश्यकता भी है, रात्रि में भोग्या भी है। वह स्वयं नृत्यांगना भी है और नचाती भी है। स्त्री-पुरुष एक-दूसरे को रिझा सकते हैं। महकाना स्त्री को आता है पुरुष को नहीं। कलाओं के कारण ही व्यक्तित्व का उत्थान होता है।
चन्द्रमा-जल-अन्न-स्त्री-सोम-अंधकार पर्यायवाची शब्द हैं। मन चूंकि चन्द्रमा द्वारा संचालित है, अत: स्त्रैण है। मन कामना है- कामना मन का बीज है- स्त्रैण है। मेघ स्त्री है- धूम, वाष्प, आकाश है। मन का दीपक जलाती है। तुलसीदास-कालीदास प्रमाण हैं। सुदामा को द्वारका जाने की प्रेरणा कहां से हुई! स्त्री मन की गहनता या एकाग्रता—ध्यान अवस्था ही मां है। सन्तान की उन्नति का रहस्य है। ऋत भाव स्त्री-कामना-मन ही प्राणन से सत्यभाव में आते हैं।
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पुरुष संस्कृति है, स्त्री सभ्यता है। स्त्री आवरण रूप है। कर्म और काल के अनुरूप बदल जाता है। सम नहीं बदलता-कृति ही बदलती है। ब्रह्म ही सम है, सम उसी की कृति है। नाना भाव-विश्व ही कृति है, एकत्व ब्रह्म है।
ब्रह्म तो ब्रह्म है, अकेला है, अकेला ही रहेगा। निष्कल, निराकार, निर्विशेष। उसने चतुराई से माया को पैदा किया और स्वयं के विस्तार की चाबी माया को दे दी। माया चतुर निकली। उसने ब्रह्म को घेरकर ढक लिया। नए-नए स्वरूपों में ढाल दिया ताकि ब्रह्म को पहचाना नहीं जा सके। माया की दुकान चल पड़ी। ब्रह्म की हुकूमत बनी रहे इसके लिए माया पर एक बड़ी शर्त भी लगा दी। जीवात्मा जब संसार चक्र में भ्रमण करके थक जाए तो उसे माया ही पुन: मुक्त भी करेगी। ब्रह्म कुछ भी नहीं करेगा। माया आए, बीजांश ले जाए और अन्त में लौटा भी जाए। वाह!
इस माया ने अपने पंख फैलाए- शब्द और अर्थ रूप में दो पंखों से उड़ान भरी और दूर तक निकल गई। कई रूप तो ऐसे धारण किए कि करोड़ों वर्ष लौटना ही नहीं पडे़। कोई लौटना भी चाहे तो माया अपना कोई नया जाल फैलाकर संसार में लौटा लाए। किसी न किसी इन्द्रिय को मोह निद्रा में सुला देना माया का बाएं हाथ का खेल है। पुरुष पूरी उम्र नाचता रहता है, इसी भ्रम में कि वही नचाने वाला है। इससे बड़ा चतुराई का उदाहरण और क्या हो सकता है। शरीर तो जड़ है- पति के हवाले-पूर्ण समर्पण। आत्मा की चेतन अवस्था से जुड़कर कार्य करती है। सूक्ष्म की भाषा- परोक्ष भाषा-पुरुष को नहीं आती। माया स्थूल और सूक्ष्म दोनों धरातलों पर समान रूप से कार्य करती है। उसकी सूक्ष्म भूमिका ही पुरुष के लिए माया है, जहां उसको हारना ही है। माया और जीव के बीच यही देवासुर-संग्राम है। सच तो यह है कि माया को बनाया ही पुरुष के लिए है। संकट तब खड़ा होता है जब वह स्वंय के लिए जीना शुरू कर देती है। पुरुष उसकी दृष्टि में गौण हो जाता है। सृष्टि का ढांचा चरमराने लगता है।
माया जब स्वयं मां के गर्भ में आती है, तब भी उसको अपने स्वरूप का ज्ञान होता है। कहां जा रही है, क्यों जा रही है। हो सकता है कि यह भी जानती हो कि किसके ब्रह्म बीज को कौनसी आकृति देनी है। नई मां को उसके आने का ज्ञान हो, यह भी आवश्यक नहीं है। वह स्वयं को अपने बूते पर मानवी रूप मेें तैयार करने का प्रयास करती है। आस-पास का वातावरण ही निर्माण में सहायक होता है। उसे यह ज्ञान तो निश्चित होता है कि उसे माया की भूमिका में जीना है।

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शैशव काल में उसका शरीर कम, मन अधिक चंचल एवं जागरूक रहता है। विष्णु माया पूर्ण चेतना के साथ चारों ओर की जानकारी बटोरती है। मन में उसका मातृत्व भी हिलोरें लेता रहता है। अपने से छोटों पर वात्सल्य लुटाती है। मिठास बांटती जाती है। समय के साथ मां के सहारे घर के कार्यों, विशेष अवसरों, पूजा-अनुष्ठानों, जन्म-मृत्यु-विवाह की साक्षी बनती जाती है। स्वयं के लिए भी वैसी ही भूमिका बनाती जाती है। अपने लिए अच्छे वर की कामना मन में शुरू होने लगती है, जैसे ही वह ऋतुमती होती है। उसके शरीर के विकास की एक दिशा होती है, मन के विकास की दिशा दूसरी। विवाह में उसके शरीर का चिन्तन मातृगृह में छूट जाता है। आत्म-चिन्तन प्रधान रूप से प्रभावी रहता है।
दाम्पत्य की शुरूआत माधुर्य से होती है। पुरुष के सौम्य भाव का सिंचन होता है। उधर पुरुष भी स्त्रैण के मातृत्व का सिंचन करता है। यह सारा आदान-प्रदान प्राणिक स्तर पर होता है। शरीर मूल माध्यम होते हुए भी लक्ष्य रूप में गौण रहता है। प्राणों को ईश्वर के साथ जोड़कर शुद्ध सात्विक आत्मा के लिए प्रार्थना की जाती है। यही प्राण बाहर जाकर आत्मा को लेकर आता है।
सम्पूर्ण जीवन काल में स्त्री दोनों स्तरों (स्थूल और सूक्ष्म) पर कार्य करती हुई दिखाई देती है। गर्भस्थ शिशु के शरीर (अर्थ) का पोषण अन्न से, आत्मा का परिष्कार मन (वाणी) से करती है। मन के पोषण में ही माया-बल-शक्ति रूप दिखाई देते हैं। शरीर सृष्टि में भी और वाणी (शब्द) सृष्टि में भी। प्रसव बाद भी शरीर और जीवात्मा के भिन्न धरातलों का पोषण भिन्न-भिन्न तरीकों से होता रहता है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

स्फुरण: कम्पन, स्पन्दन। सौम्य: सोम से प्रभावित शीतल और स्निग्ध

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