प्रथम विश्व युद्ध के बाद के उस दौर में 1928 में रिपब्लिकन पार्टी अमरीका के कृषि-व्यापार को पुनर्जीवित करने के वादे के साथ सत्ता में आई थी। इसी वादे को अमलीजामा पहनाने के लिए उस वक्त यह एक्ट लाया गया। उस समय ऐसे कदम उठाए जाने का स्पष्टीकरण फिर भी दिया जा सकता है लेकिन क्या ग्लोबलाइजेशन के दौर में इस तरह का टैरिफ वाजिब है? चीन ने भी जवाब में भारी टैरिफ लगाया है। चीन-अमरीका के बीच चल रही इस खींचतान से आगामी ट्रेड-वॉर को और हवा मिलेगी। यह तो भविष्य ही बताएगा कि ट्रंप अपनी इन नीतियों का मनचाहा निष्कर्ष निकाल पाएंगे या नहीं, लेकिन अमरीका ने इन फैसलों से एक बार फिर अपनी साम्राज्यवादी मानसिकता का परिचय दिया है, जिसके तहत वह दुनियाभर की विदेश नीति और व्यापार को ‘अमरीकी साम्राज्य’ के अधीन रखना चाहता है। फरवरी 1927 में ब्रसेल्स में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय अधिवेशन में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे जवाहरलाल नेहरू ने अमरीकी साम्राज्यवाद से होने वाले खतरे से सावधान करते हुए कहा था कि आने वाले वर्षों में ब्रिटिश हुकूमत के उत्पीडऩ से भी ज्यादा खतरा किसी से है तो वह है अमरीकी साम्राज्यवाद से।
गत वर्षों में अमरीका ने नेहरू की इस बात को सही भी साबित किया, फिर चाहे वह बलपूर्वक किसी भी देश की विदेश नीति में दखल देकर हो या वैश्विक व्यापार पर एकछत्र नियंत्रण का प्रयास करके। इतिहास को पलट कर देखें तो यह कहना गलत नहीं होगा कि ग्लोबलाइजेशन के दौर का सबसे बड़ा लाभार्थी अमरीका ही रहा है। मतलब यह कि अमरीका को इतना ताकतवर बनाने में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से विश्वभर का योगदान है। कुछ लोगों का मानना है कि ट्रंप की नीतियां ग्लोबलाइजेशन के अंत की शुरुआत हो सकती हैं। लेकिन ऐसा मुश्किल नजर आता है। असल में ग्लोबलाइजेशन में हम बहुत आगे निकल आए हैं। कई देशों का आपसी जुड़ाव और निर्भरता बहुत ही गहरी है। ‘ग्लोबल ऑर्डर’ अपने आप को पुनव्र्यवस्थित कर अमरीकी दबाव से मुक्त होने की दिशा में बढ़ सकता है। टैरिफ बढ़ाने के ट्रंप के इस फैसले से यदि किसी का पतन होगा तो वह है विश्व व्यापार संगठन, यानी डब्ल्यूटीओ। फिलहाल सभी देश अमरीकी नीतियों से जूझने के लिए अपनी चुनौतियों और अवसरों को समझने में लगे हैं। कुछ देश अमरीका से समझौते को तैयार हैं और कुछ जवाब देने को।
भारत अभी संयम से इंतजार कर रहा है और ऑस्ट्रेलिया के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौते की तर्ज पर ब्रिटेन व यूरोप में नए अवसर तलाश रहा है। 1930 के स्मूट-हॉली टैरिफ एक्ट के प्रभाव को रोकने के लिए दुनिया को अमरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट का इंतजार करना पड़ा, जिन्होंने 1934 में ‘रेसिप्रोकल ट्रेड एग्रीमेंट एक्ट’ को लागू किया। यह देखना रोचक होगा कि ट्रंप की नीति यदि अमरीका पर ही बैकफायर करती है तो क्या वे जनहित के लिए अपने फैसलों से पीछे हट जाएंगे या यह काम अगले राष्ट्रपति के लिए छोड़ जाएंगे?