अंतिम बहस के दौरान विशेष लोक अभियोजक मनोज जाट ने सुनाई कविता
वो छोटी सी बच्ची थी, ढंग से बोल ना पाती थी।देख के जिसकी मासूमियत, उदासी मुस्कान बन जाती थी।।
छह साल की बच्ची पे, ये कैसा अत्याचार हुआ।
एक बच्ची को बचा सके ना, कैसा मुल्क लाचार हुआ।।
गर अब भी हम ना सुधरे तो, एक दिन ऐसा आएगा।
इस देश को बेटी देने में, भगवान भी जब घबराएगा।।
फैसले में न्यायाधीश तबस्सुम खान ने लिखी यह कविता
इठलाती, नाचती छ: साल की परी थी, मैं अपने मम्मी-पापा की लाडली थी2 से 3 जनवरी 2025 की थी वो दरमियानी रात, जब कोई नहीं था मेरे साथ।
इठलाती, नाचती छ: साल की परी थी, मैं अपने मम्मी-पापा की लाडली थी।।
सुला दिया था उस रात बड़े प्यार से मां ने मुझे घर पर।
पता नहीं था नींद में मुझे ले जाएगा। ‘वो’ मौत का साया बनकर।।
जब नींद से जागी, तो बहुत अकेली और डरी थी मैं।
सिसकियां को लेकर मम्मी-पापा को याद बहुत करी थी मैं।
न जाने क्या-क्या किया मेरे साथ।
मैं चीखती थी, चिल्लाती थी, लेकिन किसी ने न सुनी मेरी आवाज।।
थी गुड़ियों से खेलने की उम्र मेरी, पर उसने मुझे खिलोनी बना दिया।
‘वो’ भी तो था तीन बच्चों का पिता, फिर मुझे क्यों किया अपनों से जुदा।
खेल खेलकर मुझे तोड़ा, फिर मेरा मुंह दबाकर, मरता हुआ झाड़ियों में छोड़ दिया।
हां मैं हूं निर्भया, हां फिर एक निर्भया, एक छोटा सा प्रश्न उठा रही हूं।।
जो नारी का अपमान करे, क्या वो मर्द हो सकता है।
क्या जो इंसाफ निर्भया को मिला, वह मुझे मिल सकता है।।