कृष्ण ने विवस्वान् कहा, सूर्य नहीं कहा। बारह आदित्यों में विवस्वान् ही क्यों? विवस्वान् का स्वरूप मेरे जीवन से (अर्जुन) कैसे समानता रखता है? सूर्य पिण्ड घन है। उसमें प्राणों का विशकलन* नहीं होता। विशकलन प्रकाश मण्डल में होता है। जो संवत्सर यज्ञ है, उसी में प्राण विभाग होता है। सूर्य प्राणघन है-प्राण: प्रजानामुदयत्येव सूर्य:। ऋतु विभाग से सारे प्राण विशकलित रहते हैं। आकाश में सारे प्राणों का जमाव रहता है। भिन्न-भिन्न प्राणों के स्रोत परस्पर अलग होते हुए भिन्न-भिन्न काम करते हैं। सम्पूर्ण पदार्थों, शरीर के धातुओं का निर्माण इन्हीं सौर प्राणों से होता है। प्राणों की मात्रा ही पदार्थों की विचित्रता का कारण बनती है। प्रत्येक प्राणी की शक्ति प्राणों के ही आधीन है। इनका अधिष्ठाता सूर्य है। विवस्वान् सारे मण्डल में व्याप्त है पूर्ण रूप से।
सूर्य पिण्ड की प्राण-विकृति अथवा विशकलन विवस्वान् के संवत्सर मण्डल में होती है। इस विशकलन के कारण सात ही आदित्य हैं। इसी से 6 ऋतुएं बनती हैं। वास्तव में प्रत्येक वस्तु की ऋतु भिन्न-भिन्न होती है। जिसकी ऋतु होती है उसमें वही वस्तु उत्पन्न होती है। सूर्य में से निरन्तर अनन्त प्राण संवत्सर द्वारा पृथ्वी में आकर पदार्थों में परिणित होते रहते हैं। इसी प्रकार पार्थिव पदार्थ भी निरन्तर सूर्याग्नि में आहुत होते रहते हैं। इस आदान-विसर्ग यज्ञ से ही सूर्य की सत्ता है। देवप्राणों ने सूर्य के अविकृत स्वरूप की संवत्सर मण्डल में कांट-छांट कर दी। प्राणों को विशकलित कर दिया। ऋषि याज्ञवल्क्य के अनुसार इस प्रक्रिया में विकृत होने वाला आदित्य विवस्वान् ही है। सूर्य से निकलकर अस्थि-मांसादि प्राणों वाला जो एक संवत्सर व्यापी प्राण है, उसी का नाम विवस्वान् है। सारी प्रजा इसी विवस्वान् की है। अत: इस मनवन्तर* का नाम वैवस्वत है।
सृष्टि का पहला षोडशकल पूर्णावतार सूर्य ही है। अत: सृष्टि का पिता है। सूर्य के चारों ओर परमेष्ठी लोक-गोलोक है- जिसके स्वामी विष्णु हैं। सम्पूर्ण सृष्टि विज्ञान सूर्य से ही बढ़ता है। विष्णु ही सूर्य के पिता-सोमलोक के अधिष्ठाता हैं। निश्चित है कि अव्यय पुरुष का प्रथम विकास सूर्य ही है। सूर्य ब्रह्मा (स्वयंभू) तथा विष्णु की संतान है, देव प्राण है। सूर्य के कारण 33 देवता उत्पन्न होते हैं, वैश्वानर अग्नि पैदा होता है, देवराज इन्द्र (सूर्य ज्योति) उत्पन्न होता है।
सूर्य के दो मुख्य भाग हो जाते हैं। ऊपर की ज्योति पर परमेष्ठी (मह:लोक) से निरन्तर सोम आहुत होकर अग्नि को प्रज्ज्वलित रखता है। ऊर्ध्व भाग अमृत लोक का अंग हो जाता है, अधो भाग छाया में आने से सोम-वर्षण से वंचित रहता है। अत: नीचे के मृत्युलोक का शीर्ष बन जाता है। अव्यय पुरुष के हृदय स्थित अक्षर पुरुष की कलाएं भी अमृताक्षर और मर्त्याक्षर रूप में जानी जाती हैं। पांचों कलाओं के नाम—ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि, सोम ही रहते हैं। इसी कारण क्षर पुरुष की कलाएं भी अमृत-मर्त्य के रूप में ही आगे बढ़ती हैं। अन्तर इतना ही है कि अक्षर सृष्टि प्राण रूप है और क्षर सृष्टि वाक् रूप। वाक् सृष्टि का निमित्त कारण भी अक्षर सृष्टि ही है। अक्षर प्राण आधुनिक विज्ञान का ऊर्जा क्षेत्र है और क्षर सृष्टि पदार्थ सृष्टि है।
गीता प्रकृति के दो स्वरूपों की बात करती है—परा और अपरा प्रकृति। ये ही अक्षर और क्षर सृष्टि के रूप है। अग्नि-सोम का विस्तार है। अग्नि सरस्वती है और सोम है लक्ष्मी। व्यवहार में दोनों का मूल एक है। ब्रह्म इन दो ही मार्गों से विस्तार पाता है, दो ही मार्गों से लौटता है। अग्नि में सोम की आहुति यज्ञ है। मातरिश्वा वायु ही सोम का आधान करता है। मूलाधार स्थित गणपति प्राण (मारुत) ही यज्ञकर्ता बनते हैं। लक्ष्मी और सरस्वती यानी शब्द और अर्थ भी साथ रहते हैं। मकान शब्द भी है, वस्तु भी है।
प्रत्येक शरीर अग्नि-सोमात्मक भी है, अर्द्धनारीश्वर भी। सरस्वती और लक्ष्मी रूप है। मंत्रों से निर्मित है। हमारे शरीर के चक्र भी वर्णमाला के अक्षरों से बने हैं। प्रत्येक महाभूत के बीज मंत्र भी अक्षर रूप होते हैं। शब्द-प्रकाश-आकाश भी एक ही है।
वाणी ही अक्षर ब्रह्म है। चारों वेद भी इसी अक्षर में स्थित हैं। शरीर ऋक् है जो सारे अनुष्ठान करता है। आत्मा अक्षर है, इन्द्रियां देव कहलाती हैं। जो आत्म तत्त्व को नहीं जानता वह शरीर से क्या लाभ उठा सकता है। सरस्वती अपने कर्म/प्रज्ञा से बडे़ भारी जल को वर्षा करके प्रकट करती है। सब प्रज्ञानों को अपने आधिपत्य में रखती है। उदक (जल) से अन्न और अन्न से सारे ज्ञान-विज्ञान हैं। अत: सरस्वती सब पर अपने उदक के कारण आधिपत्य रखती है। अंगिरा (सरस्वती) अग्नि, वायु, आदित्य है। भृगु (लक्ष्मी) भी सोम, वायु, आप है। यही अंधकार रूप अत्रि है, आवरण है।
परमेष्ठी सोम में स्वयंभू के स्वेदन से एक क्षेत्र में अप् की सृष्टि होती है। स्नेहन पैदा हो जाता है। पुरुष भाव में भी कामेच्छा के साथ ही स्नेहन उत्पन्न हो जाता है। भृगु-अंगिरा मह:लोक में यज्ञ प्रक्रिया में प्रवेश करते हैं, अत्रि के तम में। मन्थन से प्रज्जवलित अग्नि को सोम का अप्, प्रक्रिया के अन्त में शान्त कर देता है। इस प्रक्रिया में वायु रूप भृगु और यम रूप अंगिरा ही आगे बढ़ जाते हैं। मह: के अन्तरिक्ष ऋताग्नि और ऋत सोम तरल से विरल भाव में आते हैं। यही सृष्टि प्रारंभ की मूल अवस्था है। रेत में स्थित बीज पर चढे़ सभी भाव-अग्नि की भेंट चढ़ जाते हैं। विरल भाव का सोम गर्भाशय में विरलभाव अग्नि में, अत्रि की उपस्थिति में, आहुत होता है। मातरिश्वा रूप वायु के प्रभाव से यह युगल डिम्ब तक पहुंचता है। अत्रि पर प्रतिबिंबित जीव पर सूर्य-चन्द्रमा-पृथ्वी के अहंकृति-प्रकृति-आकृति का अंश भी स्थायी भाव में छप जाता है। पुरुष रेत ही अत्रि रूप में ब्रह्म को आवृत्त किए रहता है। यह आहुति के साथ ही जलकर भृगु को ऋत् भाव में प्रकट करता है। ब्रह्माण्ड में सोम सूर्य की सावित्राग्नि में आहुत होकर प्रकाश (इन्द्र) रूप में प्रकट होता है।
गर्भाशय में ऋताग्नि और ऋत् सोम मिलकर अव्यक्त का निर्माण करते हैं। यह पुन: आवरित होकर अव्यय पुरुष बन जाता है। स्त्री शोणित में प्रतिष्ठित अत्रि प्राण ही जीव पर 9-10 माह तक आवरणों की चिति (चयन) में सहायक बनता है। हमारे मन-बुद्धि-आत्मा आवरित ही रहते हैं। इस बीच अत्रि प्राण का बहिर्गमन रुक जाता है। हर स्तर पर जीव की पारदर्शिता को प्रतिबन्धित करता है। उपयोग के अनुरूप ही अत्रिप्राण की मात्रा स्त्री शरीर में अधिक होती है। स्त्री सौम्या होने से स्वाभाविक रूप में तम रूप है, वहीं पुरुष आग्नेय रूप में प्रकाश-ज्योति-आत्मा है। विषय-वस्तुओं (जीव सहित) को आवरित करना स्त्री का स्वभाव है। मिथ्यात्व भी आवरण का ही रूप है।
जब कृष्ण कहते हैं कि वह ज्ञान मैंने सर्वप्रथम विवस्वान् को ही दिया तो सत्य ही कहा है। ऋत सोम (कृष्ण) की प्रथम आहुति (ब्रह्मा) का प्रथम परिणाम (सूर्य) संतान रूप है। युगल सृष्टि में भी सूर्य का मूल प्रतिनिधि ही ब्रह्म बीज की आहुति ग्रहण करता है। वहीं से जीव मानव संस्थान से जुड़ जाता है। पृथ्वी लोक का अंग बन जाता है। बीज रूप ब्रह्म पंच महाभूतों से आवरित होकर 84 लाख योनियों में स्वरूप ग्रहण करता है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com