वर्चस्व पर संकट का कवच बनती हिंदी विरोध की राजनीति
उमेश चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक समीक्षक


हिंदी को लेकर तमिलनाडु की राजनीति का आक्रामक होना कोई नई बात नहीं है। हिंदी के विरोध में जिस तरह मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने रोजाना आधार पर मोर्चा खोल रखा है, वह 1965 के हिंदी विरोधी आंदोलन की याद दिला रहा है। संवैधानिक प्रावधानों की वजह से 26 जनवरी 1965 को हिंदी को राजभाषा के तौर पर जिम्मेदारी संभालनी थी, जिसके विरोध में सीए अन्नादुरै की अगुआई में पूरी द्रविड़ राजनीति उतर आई थी। तब हिंदी विरोध के मूल केंद्र में तमिल उपराष्ट्रीयता थी। उसके लिए तब यह साबित करना आसान था कि उस पर हिंदी थोपी जा रही है। तब आज की तरह सूचना और संचार की सहूलियतें नहीं थीं, लेकिन आज हालात बदल चुके हैं। लिहाजा स्टालिन के मौजूदा हिंदी विरोध की तह में जाना जरूरी हो जाता है। उत्तर भारत की जो शैक्षिक स्थिति है, उसकी असलियत सबको पता है। उत्तर भारतीय विद्यार्थियों की आवक भी तमिलनाडु में खूब है। ऐसे माहौल में वैसे तो हिंदी विरोध के औचित्य पर ही सवाल है। फिर भी स्टालिन विरोध कर रहे हैं तो उसके अपने कारण हैं।
असल बात यह है कि तमिलनाडु की राजनीति में पिछली सदी के साठ के दशक से ही स्थानीय द्रविड़ राजनीति का वर्चस्व बना हुआ है। कभी डीएमके तो कभी एआइडीएमके जैसी स्थानीय पार्टियां ही सत्ता की मलाई खाती रही हैं। सही मायने में देखें तो ये महज स्थानीय पार्टियां ही नहीं हैं, बल्कि अपने-अपने हिसाब से तमिल उपराष्ट्रीयता का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। तमिल उपराष्ट्रीयता होना बुरी बात नहीं है, लेकिन वह राष्ट्रीयता पर हावी नहीं होनी चाहिए। लेकिन यह कड़वा सच है कि तमिल उपराष्ट्रीयता राष्ट्रीय मूल्यों पर हावी रहती रही है। तमिल उपराष्ट्रीयता के ही जरिए द्रविड़ राजनीति तमिलनाडु की सत्ता पर काबिज रही है। लेकिन संचार और सूचना क्रांति के दौर में अब तमिल उपराष्ट्रीयता वाली सोच को लगने लगा है कि अगर हिंदी आई तो उसके जरिए राष्ट्रीयता की विचारधारा मजबूत होगी। जिसका असर स्थानीय राजनीति पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। हिंदी या किसी भी सामान्य संपर्क भाषा के ज्यादा प्रचलन से कट्टरतावादी स्थानीय सोच को चोट पहुंचेगी और इसके साथ ही तमिल माटी में राष्ट्रीय राजनीति की जगह मजबूत होगी। जिसका आखिर में नतीजा हो सकता है कि द्रविड़ राजनीति की विदाई। कह सकते हैं कि स्टालिन को यही डर सताने लगा है।
उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने त्रिभाषा फॉर्मूला स्वीकार कर लिया, नई शिक्षा नीति को राज्य में लागू होने दिया तो जिस स्थानीयता केंद्रित भावना प्रधान राजनीति वह या उनके साथी स्थानीय दल करते हैं, उसका प्रभाव छीजने लगेगा। इससे स्थानीय राजनीति में उनका वर्चस्व कमजोर होगा और हो सकता है कि एक दौर ऐसा आए कि दूसरे राज्यों की तरह यहां भी राष्ट्रीय राजनीति हावी हो जाए। 1967 के विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद से कांग्रेस यहां की केंद्रीय राजनीति से बाहर है। तब से वह कभी डीएमके तो कभी एआइडीएमके की पिछलग्गू बनी रही है। कुछ ऐसी ही स्थिति भारतीय जनता पार्टी की भी रही है। 2024 के आम चुनावों को छोड़ दें तो बीजेपी को भी इन्हीं दलों की बैसाखी की आस रही है। हालांकि हाल के दिनों में पूर्व अधिकारी अन्नामलाई के जरिए बीजेपी राज्य में ताल ठोक रही है। अन्नामलाई को तमिलनाडु का खुला आसमान देने के लिए बीजेपी वहां के अपने पुराने नेताओं सीपी राधाकृष्णन और एल गणेशन को राजभवन भेज चुकी है। तमिलनाडु में अगले साल विधानसभा के चुनाव हैं। स्टालिन को इस बार लग रहा है कि बीजेपी के जरिए इस बार राष्ट्रीय राजनीति राज्य में अपनी ताकतवर पहुंच बना सकती है। अगर ऐसा होता है तो निश्चित है कि द्रविड़ राजनीति के वर्चस्व को निर्णायक चुनौती मिलेगी। यही डर उन्हें हिंदी विरोध की ताजा आंच को जलाने के लिए मजबूर कर रहा है। हिंदीभाषी समाज, उत्तर भारतीय और राष्ट्रीय पहुंच वाली राजनीति को इस नजरिए को भी ध्यान रखना होगा।
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